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| जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३ इस प्रकार की व्यवस्था से प्रा० माघनन्दि की कीर्ति दूर-दूर तक फैल गई।'
भट्टारक पीठों की सर्वप्रथम स्थापना-तित्पश्चात् आर्य माघनन्दि ने धर्म संघ (भट्टारक सम्प्रदाय) की समुचित व्यवस्था के लिए २५ पीठों की स्थापना की। उन सभी पीठों पर आर्य माघनन्दि ने अपने सुयोग्य एवं शास्त्रज्ञ विद्वान् शिष्यों को पीठाधीशों के पद पर नियुक्त किया। उन पच्चीसों पीठाधीशों को छत्र चामरादि चिन्हरहित चाँदी के सिंहासन और काष्ठ की पादुकाए प्रदान की गई। उन पच्चीसों ही पीठाधीशों को सम्बोधित करते हुए प्राचार्य माघनन्दि ने कहा"तुम सब लोग प्राचार्य सिंहनन्दि के सेवक हो । तुम सब लोग अपने-अपने पीठों पर जाकर जिनशासन का प्रचार-प्रसार करो।" उन सबने भी अपने प्राचार्यदेव की प्राज्ञा को शिरोधार्य किया और अपने-अपने पीठ पर जाकर वे जिनशासन की सेवा में निरत हो गये।
. एक समय प्राचार्य सिंहनन्दि अपने विशाल शिष्यसमूह से परिवृत्त हो विविध वाद्ययन्त्रों की सुमधुर ध्वनियों एवं जय-जयकार के गगनभेदी निर्घोशों के साथ दक्षिरण मथुरा गये। वहां के महाप्रतापी एवं शौर्यशाली महाराजा राचमल्ल तथा उनके महामात्य चामुण्डराय ने प्राचार्य श्री की अगुवानी करते हुए महामहोत्सव के साथ उनका दक्षिण मथुरा में नगरप्रवेश करवाया। राजाधिराज राचमल्ल ने प्राचार्य श्री को वहां एक चैत्यालय में ठहराया.। महाराजा राचमल्ल प्रतिदिन प्राचार्य सिंहनन्दि के उपदेश सुनता और उनके प्रति अगाध श्रद्धा-भक्ति रखता था। प्राचार्य सिंहनन्दि दक्षिण मथुरा (मदुरा) में रहते हुए सद्धर्म का अनेक वर्षों तक प्रचार-प्रसार करते रहे । आचार्य सिंहनन्दि के ३०० शिष्यों में प्रमुख शिष्य देवेन्द्र कोति प्रकाण्ड पण्डित और शास्त्रज्ञ थे। सिंहनन्दि के पश्चात् देवेन्द्रकीति को प्राचार्य पद पर अधिष्ठित किया गया। आचार्य देवेन्द्रकीति का गुरुभ्राता अजितसेन भी विद्वानों में अग्रणी और महान् प्रभावक था। अजितसेन को पण्डिताचार्य के पद से विभूषित किया गया । राजा चामुण्ड राज सदा उनकी सेवा में उपस्थित रहता था।
श्लोक संख्या २१४ के उत्तरार्द्ध “तदाभून्माघनन्द्यार्यस्यास्य नाम मनोहरम् ।" से ऐसा प्रतीत होता है कि प्राचार्य माघनन्दि ने अभिनव भट्टारक परम्परा को जन्म देते समय अपने शिष्य सिंहनन्दि को प्रथम भट्टारकाचार्य बनाया और वे स्वयं यथावत् नन्दिसंघ के ही सदस्य बने रहे। इससे सर्वत्र उनका नाम हो गया अर्थात् उनकी कीति फैल गई । वे भट्टारक परम्परा के जनक थे, पर उसके प्राचार्य नहीं बने ।
-सम्पादक राजतं पीठमेतेषां, पादुके दारुकल्पिते । छत्रचामरशून्यं तद्राजचिन्हमितीड़ितम् ।।२१६।। प्रोक्त्वा तद्दापयित्वाथ, तानाहूय मुनीश्वरः । प्राचार्यसेवका यूयमिति तेषां समब्रवीत् ॥२१७।।
- जैनाचार्य परम्परा महिमा (हस्तलिखित)
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