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भट्टारक परम्परा ]
[ १६१ भट्टारक परम्परा के प्रथम प्राचार्य का पट्टाभिषेक-गुरु वचनों को शिरोधार्य कर महाराज गण्डादित्य ने उन्हें भक्तिपूर्वक नमस्कार करते हुए निवेदन किया- "भगवन् ! आपके निर्देशानुसार मैं सब प्रकार की समुचित व्यवस्था कर
दूंगा।"
तत्पश्चात् प्राचार्य माघनन्दी के आदेशानुसार गण्डादित्य ने सकल आगमनिष्णात प्रकाण्ड विद्वान मुनि सिंहनन्दि को प्राचार्य पद पर अभिषिक्त करने की पूर्ण तैयारियां की। प्राचार्य माघनन्दि ने (भट्टारक परम्परा के प्रथम प्राचार्य के रूप में) सिंहनन्दि को आचार्य पद पर नियुक्त किया। महाराज गण्डादित्य ने सिंहनन्दि का प्राचार्य पद पर पट्टाभिषेक किया। महाराजा गण्डादित्य ने प्राचार्य सिंहनन्दि का प्राचार्य पद पर अभिषेक करते समय उन्हें (आचार्य सिंहनन्दि को) एक प्रत्युत्तम शिविका (पालकी). रत्नजटित पिच्छ, चवर और छत्र आदि राजचिन्ह प्रदान किये । विविध वाद्ययन्त्रों के घोष के साथ महाराज गण्डादित्य ने प्राचार्य सिंहनन्दि की नगर में शोभायात्रा निकाल कर उनकी महती प्रभावना की । तदनन्तर राजा ने प्राचार्य सिंहनन्दि को विधिवत् चतुर्विध धर्म-संघ के संचालन के सर्वोच्च सत्तासम्पन्न सार्वभौम अधिकार प्रदान किये। महाराजेश्वर गण्डादित्य ने विभिन्न प्रान्तों तथा देश-देशान्तरों के राजा-महाराजाओं, जैन संघों एवं संघ नायकों को घोषणा-पत्र अथवा अधिकार-पत्र भेजे कि आचार्य सिंहनन्दि को मूल संघ के सर्वोच्च अधिकार सम्पन्न प्राचार्य पद पर अभिषिक्त किया गया है।
___ इस प्रकार सुदूरस्थ प्रदेशों में भी प्राचार्य सिंहनन्दि की प्रसिद्धि हो गई कि ये मूल-संघ के सर्वोच्च सर्वाधिकारसम्पन्न महान् प्राचार्य हैं ।
शृणु राजन् पुरा तीर्थंकरादीनामपि स्थिताः । बहिरंग नभोयान, चामरादि विभूतयः ।।२०७।। किं स्यात्बहु प्रसंगेन, कालशक्त यनुसारतः । क्रियते मतनिर्वाह-सिद्ध यर्थं न तदिच्छया ॥२०८।। इत्युक्त वचनं श्रुत्वा, नत्वा गुरुकुलप्रभुम् । यनिर्दिष्टं तदिच्छाभीत्यब्रवीदति भक्तितः ॥२०६।। तदाखिलादिशास्त्रज्ञ, सिंहनन्दिमुनीश्वरम् । समाहूयाथ पट्टाभिषेकं कृत्वा ततः परम् ॥२१०।। प्रदत्वा शिबिकाच्छत्रचामरादि परिच्छदान् । दत्वा रत्नमयं पिच्छं, चामरे च तथाविधे ॥२११॥ कारयित्वा पुरे नाना वाद्य स्तस्य प्रभावनाम् । सर्वाधिकारपदवीं दत्वेवाति प्रभावतः ॥२१२।। तथा देशांतरस्थानां नरेन्द्राणां च लेखनम् । भिन्नसंघाधिनाथानामपि प्रेषितवान्मुदा ॥२१३।। श्री मूल-मंघाचार्योऽयमिति सर्वप्रसिद्धिजम् । तदाभून्माघनन्द्यार्यस्यास्य नाम मनोहरम् ॥२१४॥
जैनाचार्य परम्परा महिमा (हस्तलिखित)
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