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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - भाग ३
"अब यह सुनिश्चित है कि भविष्य में इस कलिकाल में जिनशासन के प्रति निष्ठा रखने वाले तथा सत्य- शौच सदाचारपरायण राजा न होकर किरात, म्लेच्छ, यवन प्रादिहीन कुलों के दुष्ट राजा होंगे। भविष्य में श्रावक पूर्व काल की तरह धर्मनिष्ठ एवं सत्यवादी न होकर काल के कुप्रभाव से उन म्लेच्छ राजान के दुराचारानुकूल स्वेच्छाचारी, मूर्ख, गुरुनिन्दक, महाधूर्त प्रौर कुमार्गगामी होंगे । इस प्रकार के मूर्ख, स्वेच्छाचारी एवं कुमार्गगामी श्रावकों पर केवल प्राचार्य ही अनुग्रह - निग्रहात्मक अनुशासन रख सकेंगे, क्योंकि उस भावीकाल में सन्मार्गगामी राजानों का अस्तित्व तक भी नहीं रहेगा ।"
"इस प्रकार की प्रवश्यम्भावी भविष्य की स्थिति को दृष्टिगत रखते हुए अब प्राचार्यों के पास सिंहासन, छत्र, चामरादि राजचिन्हों, भृत्यों और चांदी, सोना आदि धन का होना परम आवश्यक है। किन्तु यह सब कुछ आपकी सहायता के बिना नहीं हो सकता । श्रतः आपको ही यह सब व्यवस्था करनी है ।" "
प्राचार्य माघनन्दि की यह बात सुन कर नृपति गण्डादित्य ने कहा"स्वामिन् ! दिगम्बरों को यह सब किस प्रकार शोभा देगा ?"
प्राचार्य माघनन्दि ने कहा- "सुनो राजन् ! प्राचीन काल में तीर्थ करों के भी छत्र, चामर, प्राकाश-गमन प्रादि बहिरंग प्रतिशय होते थे । इस सम्बन्ध में प्रौर अधिक कहने की प्रावश्यकता नहीं । समय के प्रवाह को दृष्टिगत रखते हुए केवल मत-निर्वाह अर्थात् जैन धर्म को एक जीवित धर्म रखने के अभिप्राय से ही यह सब कुछ करना परमावश्यक हो गया है।'
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' पार्थिवाशानुगा: सर्व, श्रावका सत्यभाषिताः । जनमार्गे चरन्त्येवमुत्तरत्र न ते ततः ॥ २०१ ॥ स्वेच्छाचाररता: मूर्खा वक्राश्च गुरुनिन्दकाः । तदा कुमार्गवशगाः, श्रावका कालदोषतः ॥ २०२ ॥ इदानीं श्रावका सर्वे, मनुकाल मृगोपमाः । भाविनस्ते महाघूर्ताः ह्ये तत्कालमृगोपमाः ॥२०३॥ निग्रहानुग्रही तेषामाचार्येव नान्यथा । यतः सन्मार्गगा नंव, वर्तन्ते पार्थिवास्ततः ॥ २०४ || तदर्थं राजचिह्नश्च भाव्यं भृत्यैर्धनैरपि । श्रार्यस्य हि तत्सवं, त्वत्सहायेन नान्यथा ॥ २०५ ॥
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— जैनाचार्य परम्परा महिमा हस्तलिखित प्रति
गुरुणोक्तं वचः श्रुत्वा, नरेन्द्रः पुनरब्रवीत् । स्वामिन् ! दिगम्बराणां तच्छोभते कथमित्यपि ॥ २०६॥
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