SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 217
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भट्टारक परम्परा.] [ १५६ (इस प्रकार की व्यवस्था के मनन्तर प्राचार्य माघनन्दि ने उन सब बालकों को द्रव्य मुनिलिंग को दीक्षा न देकर केवल भाव मुनित्व की ही दीक्षा दी और उच्च स्वर से उसी समय उनका नामपरावर्तन कर दिया। श्रमणधर्म की भाव-दीक्षा ग्रहण करने के पश्चात् उन नवदीक्षित मुनियों ने क्रमश: नवीन नाम के उच्चारण के साथ गुरु द्वारा सम्बोधित किये जाने पर अपने गुरु का वन्दन नमन किया । आचार्य माघनन्दि ने अपने उन नवदीक्षित ७७० मुनियों को पाशीर्वाद दे उन्हें शास्त्रों का अध्ययन करवाना प्रारम्भ किया। तत्पश्चात् प्राचार्य माघनन्दि ने राजराजेश्वर गण्डादित्य को उन नवनिर्मित ७७० चैत्यालयों की प्रतिष्ठा करने की अनुज्ञा प्रदान की। गण्डादित्य ने स्थान-स्थान पर प्रति सुन्दर एवं विशाल तोरणों का निर्माण करवा नगर को सजवाया। सभी मन्दिरों के शिखरों पर इन्द्रध्वज तुल्य ध्वजाए लगवाई। मन्दिरों के मुख्य द्वारों, दीवारों एवं कंगूरों पर रंगबिरंगी नितरां प्रतीव सुन्दर पताकाएं लहराने लगीं। तदनन्तर महाराज गण्डादित्य ने पूर्ण ठाट-बाट के साथ उन सब मन्दिरों की प्रतिष्ठाएं करवाई। निम्बदेव ने अभ्यर्थिजनों को यथेप्सित दान दे समस्त संघ एवं प्रजा को सभी भांति सन्तुष्ट किया। ___ उन नूतन मुनियों का अध्ययनक्रम निर्बाध गति से उत्तरोत्तर प्रगति करने लगा। प्राचार्य माघनन्दि के चरणों में बैठ कर उन नये साधूनों ने गणित छन्द, काव्य, अलंकार, ज्योतिष, वैद्यक, मन्त्र, तन्त्र, शब्दशास्त्र, कवित्व, नाट्यशास्त्र, गमक, वक्त त्वकला, आदि सभी विद्यामों एवं शास्त्रों का बड़ी ही निष्ठा के साथ अध्ययन किया इस प्रकार वे सब के सब ७७० मुनि सभी विद्यानों के पारंगत प्रकाण्ड विद्वान् बन गये। उन ७७० विद्वान् मुनियों में से १८ मुनि सिद्धान्त शास्त्रों के पूर्ण पारंगत विशिष्ट विद्वान् बने । शेष सभी मुनि तर्क शास्त्र में ऐसे निपुण हो गये कि उनके द्वारा एक वाक्य के उच्चारण मात्र से ही प्रतिवादी घबराने लग जाते थे। एक दिन प्राचार्य माघनन्दि ने महाराजा गण्डादित्य को बुलाकर कहा'निश्चक्र चक्रवर्तिन् ! आपकी सहायता. एवं सहयोग से सकल शास्त्रों में निष्णात ये ७७० महा विद्वान् मुनि जिनशासन की सेवा के लिये समुद्यत एवं कृतसंकल्प हैं। जिस प्रकार भरत प्रादि चक्रवतियों ने जिनशासन का उद्धार किया, वस्तुतः उसी प्रकार आपने भी जिनशासन का उद्धार किया है। आपके द्वारा निर्मित ये ७७० चैत्य प्राज वस्तुत: प्राकृत शाश्वत चैत्यों के समान धरातल पर सुशोभित हो रहे. हैं । देखा जाय तो आपका जन्म सफल हो गया है, पाप कृतकृत्य हो गये हैं। वैभव, धैर्य, शौर्य, गाम्भीर्य प्रादि गुणों में आपके समान और कोई राजा दृष्टिगोचर नहीं होता।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy