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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३ राजा गण्डादित्य ने कहा-"देव ! मुझे आप पर अटूट प्रास्था है । आप इन बालकों को सहर्ष श्रमणधर्म में दीक्षित कर लीजिये।"
राजा द्वारा सहमति प्रकट किये जाने पर तत्क्षण उन सब बालकों को वहां लाया गया। स्नान कराने के उपरान्त आचार्य माघनन्दि ने उन्हें पूर्वाभिमुख बैठा कर सब लोगों के समक्ष राजराजेश्वर गण्डादित्य से कहा-"सुनो राजन् ! ये सभी बालक महापुरुषों द्वारा धारण की जाती रही श्रमण-दीक्षा ग्रहण कर रहे हैं। कहां जो वैराग्य के रंग में पूर्णतः रंग जाने के कारण प्रबुद्ध, धीर वीर, गम्भीर पुरुषों द्वारा धारण किये गये पूर्ण अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह नामक प्रति दुष्कर पंच महाव्रत और कहां ये निर्बल सुकुमार बालक ? तथापि देश, काल और शक्ति के अनुसार इन्हें केवल भाव निग्रंथ धर्म की दीक्षा दी जा रही है। ये सब अल्पवयस्क बालक हैं, इसीलिये इन्हें द्रव्य-दीक्षा नहीं दी जा रही है। सोना, चांदी, लोह और बैंत के वलय वाले चार प्रकार के पिच्छ माने गये हैं । लीलाप्रिय सहज बालस्वभाववश ये लोग स्वर्ण अथवा रजत वलय के पिच्छों को इधर उधर रख कर भूल भी सकते हैं, अतः इनके लिये बैत के वलय तथा बैंत की ही डण्डी से युक्त पिच्छ उपयुक्त होंगे। प्राज तक यह व्यवस्था रही है कि श्रमण-दीक्षा के समय उस श्रमरण का नाम वही रखा जाता था जो कि गृहस्थ जीवन में उसका नाम होता था। अब उस व्यवस्था को बदल कर श्रमणत्व अंगीकार कर लेने पर उसका पूर्व नाम न रख कर अन्य नाम रखा जायेगा ।"
तथापि दीयते देश कालशक्त्यनुसारतः ।। शक्तितस्तप इत्येतत्सर्वसिद्धान्त संमतम् ॥ १७७ ॥ एतेषां भावनग्रंन्थ्यमेव शक्ति-प्रचोदितम् । प्रति बाला इमे यस्मान्न द्रव्यगमुदीरितम् ॥ १७८ ॥ सौवर्ण राजतं लोहमयं वेत्रान्वितं च वा । मतं वलयपिच्छं हि, यथायोग्यं न चान्यथा ।। १७६ ।। यस्मादिमे विस्मरन्ति, लीलासंकल्पचोदिताः । वेत्रदण्डान्वितं पिच्छं, तस्मात्तद्वलयान्वितम् ॥ १० ॥ इयत्कालं मुनीनां हि, पूर्वनामसमर्पणम् । न तथेतः परं नामान्तरमेव निरूप्यते ॥ ११ ॥ इति नामपरावृत्ति, कृत्वा चोच्चमपि स्फुटम् । उत्थायते हि मुनयो, नमस्कुर्वन्तु शीघ्रतः ॥ १८२ ॥ इत्युक्त्वाहूय. तान्सर्वान्, नामकीर्तनपूर्वकम् । दत्वाशिषं हि कृतवान् शास्त्रारम्भमपि स्फुटम् ।। १८३ ॥
-नाचार्य परम्परा महिमा [अप्रकाशित]
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