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________________ आलेखन के समय से ही आचार्य श्री इस सम्बन्धी (परम्परा सम्बन्धी ऐतिहासिक) सामग्री की खोज के लिए समुत्सुक थे । श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं के बीच यापनीय परम्परा एक अतीव महत्वपूर्ण कड़ी समझी जाती रही है। इस कारण यापनीय परम्परा के सम्बन्ध में यथा शक्य अधिकाधिक सामग्री संकलित करने का प्रारम्भ से ही लक्ष्य था । यह सुयोग ही था कि आचार्यश्री का १९८१ का चातुर्मास रायचूर में हुआ। यहाँ के धारवाड़, श्रमण वेलगोल, मूड बिद्री, कारकल मैसूर आदि जैन विद्या के प्राचीन केन्द्र समझे जाने वाले विश्वविद्यालयों से एवं वहाँ के प्रतिष्ठित पुरातत्वविदों एवं इतिहास के विद्वानों के सम्पर्क से यापनीय परम्परा के सम्बन्ध में भी यथेप्सित सामग्री हमें प्राप्त हुई । हालांकि इस सामग्री से भी यापनीय परम्परा के सम्बन्ध में हमें पूरा सन्तोष तो नहीं हुआ पर फिर भी जैन इतिहास की विलुप्तप्रायः और विशृङ्खलित कड़ियों को जोड़ने में हमें इस सामग्री से पर्याप्त सहायता मिली। ऐसा हमारे इतिहास लेखकों को प्रतीत हुआ कि यापनीय, परम्परा के इस प्रमुख केन्द्र कर्णाटक पर विदेशी आक्रमणों और प्रमुख रूप से मुसलमानों के आक्रमण काल में यापनीय परम्परा का जो विपुल साहित्य था वह अधिकांश में विनष्ट कर दिया गया। इस सामग्री के प्राप्त होने के बाद आशा थी कि इस प्रस्तुत ग्रंथ का लेखन शीघ्र सम्पन्न कर लिया जावेगा पर इसी बीच लेखक महोदय की सेवाएं आवश्यक समझकर जलगांव में आचार्य श्री के चातुर्मास काल में वहाँ के श्री महावीर जैन स्वाध्याय विद्यापीठ एवं वहाँ की नेशनल पब्लिक लाइब्रेरी को दी गई। इससे इतिहास लेखन के कार्य में पुनः विलम्ब हुआ । अन्त में जुलाई १९८३ से इस ग्रंथ के मुद्रण और साथ-साथ अग्रेतर आलेखन के द्रुतगति दी गई। परिणाम स्वरूप यह ग्रन्थ अब पाठकों के सम्मुख है। इस ग्रन्थ के प्रकाशन में श्री प्रेमराजजी बोगावत का सहयोग भी बड़ा प्रशंसनीय रहा जिन्होंने अपना व्यस्त व्यावसायिक जीवन होते हुए भी पूरे चार मास तक अपना पूरा ध्यान इधर केन्द्रित किया। उनकी इस निःस्वार्थ सेवाओं के लिए हम पुनः उनके प्रति एवं लेखक महोदय के प्रति अपना हार्दिक आभार प्रकट करते हैं। जैन जगत् के यशोधनी समर्थ साहित्य सर्जक पूज्य देवेन्द्र मुनिजी महाराज सा. ने अस्वस्थ एवं अत्यधिक व्यस्त होते हुए भी प्रस्तुत ग्रन्थ का अथ से इति तक अवगाहन कर इस पर "एक अवलोकन' लिखने की महत्ती कृपा की है, इसके लिए हम पूज्य पं. मुनिश्री के प्रति अन्तर्मन से आभार प्रकट करते हैं । आदरणीय पद्म विभूषण डा. डी. एस. कोठारी सा. ने महत्ती कृपा करके गुरुभक्ति से प्रेरित होकर इस पुस्तक के लिए "दो शब्द" लिखकर जो कृपा की है, उसके लिए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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