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________________ १५६ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - भाग ३ निस्तब्धता में नितान्त गुप्त रीति से गिरवा दिया जाता। यही क्रम कतिपय दिनों तक चलता रहा । विश्वस्त लोगों के माध्यम से जनसाधारण में सर्वत्र "यह प्रचार करवा दिया गया कि राज्य एवं प्रजा की सुरक्षा के लिये यह गढ़ बनवाया जा रहा है । यह भूमि सर्वलक्षणसम्पन्न किशोरों युवकों का बलिदान मांगती है । बलिदान न देने के कारण दिन में किया हुआ निर्माणकार्य रात्रि में ढह जाता है । इस प्रकार का समुचित प्रचार हो जाने के पश्चात् राजा गण्डादित्य ने अपने दण्डनायक एवं राज्याधिकारियों को आदेश दिया कि प्रजा की सुरक्षा की दृष्टि से परमावश्यक इस गढ़ के निर्माण के लिये सुलक्षरण सम्पन्न बालकों की बहुत बड़ी संख्या में बलि देना अनिवार्य हो गया है । अतः उत्तमोत्तम सुलक्षणों से सम्पन्न बालकों को चुन-चुन कर राजप्रासाद में एकत्रित किया जाय । राजा का आदेश होते ही नागरिकों के घरों से सुलक्षणसम्पन्न बालकों को बलात् पकड़-पकड़ कर राजभवन में एकत्रित किया जाने लगा । बलि हेतु अपने अपने बालक के बलात पकड़ लिये जाने के कारण उन बालकों के मातापिता करुण क्रन्दन करने लगे। नगर में सर्वत्र हाहाकार, भय और आतंक का वातावरण व्याप्त हो गया । पूर्वनियोजित कार्यक्रम के अनुसार कुछ पुरुषों ने उन विक्षुब्ध एवं करुण ऋन्दन करते हुए मातृपितृ वर्ग को प्राचार्य माघनन्दि के समक्ष अपनी करुण पुकार प्रस्तुत करने का परामर्श दिया । तदनुसार वे सब लोग एकत्रित हो प्राचार्य माघनन्दि की सेवा में उपस्थित हुए । अपने आचार्य देव के चरणकमलों में साष्टांग प्रणाम करते हुए उन्होंने करुण स्वर में उनके समक्ष निवेदन करना प्रारम्भ किया - "आचार्य भगवन् ! आपकी छत्रच्छाया में रहते हुए भी हमें यह दुस्सह्य दारुरण दुःख क्यों भोगना पड़ रहा है ? अब हम इस घोर दुःख को सहन करने में असमर्थ हैं, अतः अब आप कृपा कर हम सब को निर्ग्रन्थ श्रमरणधर्म की दीक्षा प्रदान कर दीजिये । हमारे प्राणाधार पुत्रों को बलात् पकड़-पकड़ कर राजप्रासाद में बन्द कर दिया गया है । आपने यदि हम पर दया नहीं की तो आज ही हमारे प्राणप्यारे पुत्रों का बलिवेदी पर बलिदान कर दिया जायेगा । हम सब आपकी शरण में हैं । केवल आप ही हमारी रक्षा करने में समर्थ हैं । हम पर दया कीजिये दयासिन्धो ! ' " श्रावकों की सब बातें सुनने के पश्चात् श्राचार्य माघनन्दि ने कहा- "भव्यगण ! आप सब बुद्धिशाली श्रावक हो और इस बात को भली-भांति जानते हो, "समझते हो कि राजा ही विपरीत अथवा पराङ्मुख हो जाय तो उस दशा में किया ही क्या जा सकता है । इतना सब कुछ होते हुए भी आपकी यह विनती भी टाली नहीं जा सकती, इसके लिये कोई न कोई उपाय करना होगा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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