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________________ भट्टारक परम्परा ] [ १५५ जानते ही हैं कि धर्म-प्रभावना धर्म के अभ्युदय एवं अभ्युत्थान का प्रमुख अंग है और धर्म की प्रभावना शास्त्र के बिना कभी संभव नहीं। शास्त्र भी उसके ज्ञान को धारण करने वाले सुपात्र के बिना सक्षम नहीं। ऐसी स्थिति में आपको मेरे साथ सहयोग कर शास्त्रों के ज्ञान को धारण करने में पूर्णतः समर्थ सुपात्र उपलब्ध कराने का अन्तर्मन से प्रयास करना चाहिए। यह कार्य निश्चित रूप से स्वर्ग तथा अपवर्ग का सौख्य प्रदान कराने वाला है। सर्वप्रथम मैं स्वयं धर्मसंघ को इस कार्य हेतु अपना पुत्र धर्मसन्तति के रूप में समर्पित करता हा आपसे भी सानुरोध निवेदन करता हूं कि आप लोग भी अपना एक-एक पुत्र धर्मसंघ को धर्मसन्तति के . रूप में समर्पित कर धर्मसंघ की धर्मसन्तति की अभिवृद्धि में सहायक बनें।" नृपति गण्डादित्य की इस घोषणा से हर्षोत्फुल्ल हो दण्डनायक ने तत्काल सबको सम्बोधित करते हुए कहा-"सबके अन्तर्मन को आनन्दित कर देने वाली हमारे नरेश्वर की घोषणा वस्तुतः हम सबके लिये परम कल्याणकारिणी एवं अनुकरणीय है। हमें इसे अपने स्वामी के आदेश के रूप में शिरोधार्य करना चाहिये । मैं भी सहर्ष अपना एक पुत्र संघ को समर्पित करता हूं। मैं आशा करता हूं कि आप सब भी अपना एक-एक पुत्र संघ को समर्पित कर हमारे धर्मनिष्ठ नरेश्वर का अनुसरण करेंगे।" - अपने महाराजाधिराज और दण्डनायक की बात सुनकर समस्त श्रावक समूह शोकाकुल हो गया । मन्द-सम्भाषण पूर्वक परस्पर विचार-विमर्श कर वे श्रावक जन अत्यन्त दैन्यपूर्ण स्वर में कहने लगे- "हे नरनाथ ! प्रत्युत्तर देने में तो हम समर्थ नहीं हैं, आपसे केवल प्रार्थना ही करते हैं कि पुत्रों के अतिरिक्त अन्य जो भी आप चाहें, हम से ले लें। संसार के सारभूत पदार्थ-पुत्रों को दे देने के पश्चात हमारे पास रहेगा ही क्या ? इससे तो अच्छा है कि आप हमें ही श्रमणधर्म की दीक्षा प्रदान करवा दीजिये । आप ही हमारे भाग्यनिर्माता हैं।" इस प्रकार सामूहिक रूप से पालापसंलाप प्रलाप करते हुए वे सब साष्टांग प्रणाम करते हुए भूमि पर लुण्ठन करने लगे। यह देख कर महाराज गण्डादित्य ने तत्काल उन सब श्रावकों को केवल ताम्बूलमात्र प्रदान कर विदा कर दिया । उन सब को विदा करने के पश्चात् महाराज गण्डादित्य ने अपने सेनापति निम्बदेव के साथ मन्त्रणा की और वे दोनों इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि सम्मान एवं अनुदान से तो अभीष्ट लक्ष्य की सिद्धि होना असंभव प्रतीत हो रहा है अतः अब किसी अन्य उपाय का आश्रय लेना अनिवार्य हो गया है । कतिपय दिनों तक समुचित उपाय के विषय में सोचविचार करने के पश्चात् गण्डादित्य को एक उपाय ध्यान में आया ।(राज्य की एवं प्रजा की सुरक्षा के व्याज (बहाने) से उसने एक सुदृढ़ एवं विशाल गढ़ के निर्माण का कार्य प्रारम्भ करवाया) दिन भर जो निर्माण कार्य होता, उसे रात्रि की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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