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________________ १५४ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३ ज्ञान को धारण करने योग्य सुपात्रों को चुन-चुन कर श्रमणत्व अंगीकार करने के लिये उन्हें प्रेरणा कीजिये । और इस प्रकार साधु तैयार कर जिनशासन की प्रभावना का कार्य करिये।" ____महाराजा गण्डादित्य को अपने आचार्य का इस प्रकार का निर्देश रुचिकर लगा। उसने कुछ विचार कर कहा-"प्राचार्य देव ! सुपात्र कैसे होने चाहिये ? सुयोग्य पात्रों के चयन के पश्चात् उन्हें शास्त्राध्ययन कराने एवं श्रमणत्व अंगीकार करने के लिये किस प्रकार कृतसंकल्प बनाना चाहिये ? इस कार्य के निष्पादन के लिये आप कृपा कर मुझे आद्योपान्त पूरी विधि स्पष्टतः समझाइये।" - आचार्य माघनन्दि ने कहा-"राजन् ! शास्त्रज्ञान को धारण करने के लिये योग्य सुपात्र वही है, जो स्वस्थ, निरालस्य, सुतीक्ष्णबुद्धि, उत्कृष्ट स्मरणशक्तियुक्त, सर्वकार्यकुशल, वाकपटु और बाह्याभ्यन्तर दोनों ही दृष्टियों से विशुद्ध हो । इस प्रकार के सुपात्र को प्राप्त करने का जहां तक प्रश्न है, इसमें उत्कृष्ट नीतिनैपुण्य एवं सावधानी से कार्य करने की आवश्यकता है। सर्वप्रथम ऐसे सुपात्र को सम्मान तथा अनुदान से आकर्षित करने का प्रयास करना चाहिये। यदि सम्मान-अनुदान से भी वह सुपात्र प्राप्त न हो सके तो उसे फिर किसी व्याज अर्थात प्रपंचपूर्ण उपाय से येन-केन-प्रकारेण प्राप्त कर ही लेना चाहिए। क्योंकि इस प्रकार व्याज के माध्यम से उसका प्राप्त करना भी उसके लिए, . उसके उज्ज्वल भविष्य के लिए हितकर ही सिद्ध होगा। इस प्रकार संयमसाधना एवं जिनशासन की प्रभावना कर भव्य भक्त देव, देवेन्द्र, असुरेन्द्र, नरेन्द्र आदि पदों के सौख्योपभोग के अनन्तर अन्ततोगत्वा मोक्ष का अधिकारी भी हो सकता है।" प्राचार्य माघनन्दि से इस प्रकार मार्गदर्शन प्राप्त कर गण्डादित्य बड़ा सन्तुष्ट हया और सेनापति निम्बदेव एवं प्रधानामात्यादि के साथ राजप्रासाद में लौट आया। कतिपय दिनों के अनन्तर महाराजा गण्डादित्य ने एक दिन अपने नगर के श्रावकों को राज्यसभा में ससम्मान आमन्त्रित कर उन्हें सम्बोधित करते हुए कहा"महानुभावो ! आप सब जैन धर्म में प्रगाढ़ निष्ठा रखने वाले सम्माननीय श्रावक हैं । आप लोग ही वस्तुतः भवभ्रमण से उद्धार करने वाले धर्म के आधारस्तम्भ हैं । आपके बिना धर्म का अस्तित्व संभव नहीं। क्योंकि बिना प्राधार के भी भला कहीं कभी कोई आधेय अस्तित्व में रहा है। इसी कारण आप अपनी पूरी शक्ति के साथ इसके आधारभूत अवलम्बन बने हुए हैं। यह तो आप सभी भली-भांति सन्मानमनुदानं वा, व्याजान्तरमसाधिते । ताभ्यां हि तदुपायं भूधवनाथाधिनायक ।।१३३।। सुरोरगनरेन्द्राणां, लब्बा परमवैभवम । मोक्षानुगमनं तस्य व्यवस्था नरनायक ।।१३४।। -जैनाचार्य परम्परा महिमा, अप्रकाशित--- Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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