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भट्टारक परम्परा ]
[ १५३ नन्दि की सेवा में उपस्थित हुआ। वन्दन-नमन प्रादि के अनन्तर महाराजा गण्डादित्य ने विनयपूर्वक आचार्य माघनन्दि से निवेदन किया "काम-क्रोध-मद-मोहअज्ञान-तिमिर विनाशक दिनमणे! पूज्य प्राचार्यदेव ! आपके कृपा प्रसाद से ७७० चैत्यालयों का निर्माण हो चुका है। अब पाप विचार कर जैसा उचित समझे, वही करें।"
आचार्य माधनन्दि ने कहा-"राजन् ! इन विषम परिस्थितियों में तुम्हारे इस पाषाण संग्रह पर क्या विचार किया जाय । इस विपुल व्यय का आखिर फल क्या है ?"
प्राचार्य माघनन्दि की बात सुनकर गण्डादित्य भयोद्रेक से क्षण भर के लिए अवाक रह गया। अपने आपको आश्वस्त कर उसने कहा-"प्राचार्य-प्रवर ! इससे बढ़कर अन्य और क्या शुभ काम है ? मैं तो इस सम्बन्ध में कुछ भी नहीं जानता। कृपा कर माप ही बताइये । क्योंकि गुरु का उपदेश ही गृहस्थों के लिये मार्गदर्शक, आदर्श और आचरणीय है।
- गण्डादित्य के मुर्भाये हुए मन को उल्लास से आपूरित करते हुए मन्द मुस्कान के साथ प्राचार्य माघनन्दि ने कहा-"राजन् ! आराधकों के अभाव में, भला आज तक कहीं आराध्य अस्तित्व में रहे हैं ? जिनबिम्ब आराध्य हैं और उनकी आराधना के लिए भव्य आराधकों की आवश्यकता सदा रहती है। लोगों को बोध दिया जायगा तभी तो वे प्रबुद्ध हो जिनदेव के आराधक बनेंगे। यह तो तुम जानते ही हो कि संसार में तीर्थंकर भगवान् के अतिरिक्त अन्य कोई भी भव्य स्वयंबुद्ध नहीं होता। लोगों को धर्म का बोध कराने के लिये साधुओं की, धर्मोपदेशकों की अनिवार्य आवश्यकता रहती है। भव्यजन-प्रतिबोधक साधूत्रों के अभाव में लोगों को बोध कैसे होगा और वे जिनाराधक साधक किस प्रकार बनेंगे? साधुओं के अभाव की आज की स्थिति में बोधक साधुओं को तैयार करना ही जिनशासन की प्रभावना का सबसे महत्वपूर्ण कार्य है । इस कलिकाल में लोग राजाओं के अधीन होते हैं । अाज साधुओं का अभाव होता जा रहा है । अतः “राजन् ! आप आगम
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इत्युक्ते नरपाले हि, मुनीन्द्रोऽप्यब्रवीत् पुनः । इदानीमवधार्य किं, तव पाषाणसंग्रहे ॥११८।। किमस्ति फलमेतेन, व्ययेनेति प्रचोदिते । ............ ॥११६।। जैनाचार्य परं० म० तस्माद् बोधक एवात्र, मुख्यं मार्गव्यवस्थितौ । बोधकेन बिना किंचिन्न हि कार्यं जगत्त्रये ॥१२५।। कार्यमस्ति समालोच्यं, तद्वच्मि समनन्तरम् । प्रतिष्ठां कुरु कृत्वेतत्, पूर्व शास्त्रावलम्बनम् ॥१२६॥
--जैनाचार्य परम्परा महिमा, (अप्रकाशित)
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