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मट्टारक परम्परा ]
[ १५१ प्राचार्य कुन्दकुन्द के पश्चात् उनके पट्ट शिष्य वीरनन्दि आचार्य पद पर पासीन हुए । वीरनन्दि के शिष्य-श्रमणों की संख्या ५००१ थी । इन्हों ने चम्पापुर में चन्द्रप्रभ (चरित्र) नामक प्रसिद्ध काव्य की रचना को । प्राचार्य वोरनन्दि के पश्चात उनके पट्टधर गोल्लाचार्य हुए । गोल्लाचार्य कुमारावस्था में ही दीक्षित हो गये थे। तपश्चरण के प्रभाव से उन्हें किसी लब्धिविशेष को उपलब्धि हो गई। विशिष्ट लब्धि की प्राप्ति के कारण उनके अन्तर्मन में सत्ता एवं ऐश्वर्य के सांसारिक सुखोपभोग के प्रति मोह जागृत हुआ। श्रमणत्व का परित्याग कर लब्धि के प्रभाव से वे गोल्ल प्रदेश के अधिपति बन गये और महाराजा गोल्लाचार्य के नाम से प्रख्यात हुए।
। उन गोल्लाचार्य के राजसिंहासनारूढ़ हो जाने पर प्रविद्धकर्ण पद्मनन्दि सिद्धान्ताग्रणी उनके पट्टधर प्राचार्य हुए। ये पद्मनन्दि कोमारदेव के नाम से विख्यात हुए।
इन कौमारदेव के पश्चात् उनके शिष्य शाकटायन प्राचार्य पद पर प्रासोन हए। देशीय गण के सकल विद्यावारिधि महाविद्वान प्राचार्य शाकटायन ने शाकटायन आम्दानुशासन और उसकी प्रमोघवृत्ति को रचना को ।' इन प्रकाण्ड विद्वान् शाकटायन के पट्टधर कुलभूषण हुए। उन कुलभूषण प्राचार्य के गुरुभ्राता (शाकटायन के ही शिष्य) पण्डिताचार्य विरुदघर प्रभाचन्द्र हुए जिन्होंने शाकटायन सूत्र पर सवा लाख श्लोक प्रमाण न्यास मार्तण्ड की तथा न्यास कुमुद चन्द्रोदय नामक तर्कशास्त्र की रचना की । धाराधिनाथ राजा भोज सदा इनकी पूजा-सेवा करते थे।
प्राचार्य कुलभूषण के पश्चात् पण्डिताचार्य प्रभाचन्द्र के अग्रज देवनन्दी प्राचार्य पद पर आसीन हुए, जो समस्त शास्त्रों के पारगामी विद्वान् थे। उनका बुद्धिवैभव अलौकिक एवं अनुपम था, इसी कारण जिनेन्द्र बुद्धि के नाम से तथा मापके चरण सरोज देवतामों एवं राजा-महाराजामों द्वारा पूजित होने के कारण पूज्यपाद के नाम से भी आपकी ख्याति सर्वत्र प्रसृत हुई। पूज्यपाद पोर जिनेन्द्रबुद्धि विरुद के धारक इन्हीं श्री देवनन्दी प्राचार्य ने बिना किसी अन्य की सहायता के अतसागर का मथन कर "जैनेन्द्र" व्याकरण का उद्धार किया। ज्ञानपिपासुमों के कल्याण के लिये मापने पाणिनीय सूत्रों पर भी वृत्ति की रचना की। इन्हीं प्राचार्य दिवनन्दी ने तत्वार्थसूत्र-टिप्पण, पूजाविधि संहिता, ज्योतिष शास्त्र सुज्ञान दीपिका, बिन्द शास्त्र पर सवृत्त कल्पद्रुम और वैराग्यरस से प्रोतप्रोत समाधिशतक प्रादि वियों की रचनाएं की। पादलेप-पोषधि के प्रभाव से गगनमार्ग में गमन करते हुए माचार्य पूज्यपाद ने महा विदेह क्षेत्र में जाकर तत्र विराजित तीर्थकर भगवान् श्रीमन्धर स्वामी के दर्शन किये। तीर्थकर प्रभु से वहां अपने कतिपय संशयों का समाबिान कर वे पुनः भाकाश मार्ग से भरत-क्षेत्र में लौट पाये। प्राकाश-मार्ग से लौटते
. शाकटायन शम्दानुशासन, प्रमोषवृत्ति सहित के कर्ता शाकटायन यापनीय थे।
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