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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३
कि इन श्रमणों के मन में ममीकार ने घर कर लिया है। यह शिष्य वर्ग मेरा है, वह शिष्य वर्ग उसका है, इस प्रकार के ममत्वभाव से तो धर्म का ह्रास होगा और अंततोगत्वा धर्म की अवनति हो जायेगी।" इस तरह विचारकर उन्होंने पृथक-पृथक गणों की व्यवस्था करते हुए कहा --"जो मुनिमुख्य पूर्व दिशा से आये हैं, वे माज से पूर्वाचार्य, दक्षिण दिशा से आये हैं, वे दक्षिणाचार्य, पश्चिम दिशा से पाये हैं, वे पश्चिमाचार्य और जो उत्तर दिशा से आये हैं वे उत्तराचार्य के नाम से अभिहित किये जायेंगे। पूर्वाचार्य के संघ का नाम सेन संघ, दक्षिणाचार्य के संघ का नाम नन्दिसंघ,पश्चिमाचार्य के संघ का नाम सिंह संघ और उत्तराचार्य के संघ का नाम देवसंघ होगा।" इस प्रकार अहंबली प्राचार्य ने श्रमण संघ को चार संघों में विभक्त किया।
इस प्रकार चार गणों की स्थापना के पश्चात् दक्षिणाचार्य विरुदधर महाप्राज्ञ प्राचार्य चन्द्रगुप्त नन्दिसंघ के अधिनायक प्राचार्य हुए, जिनके बारे में यह प्रसिद्ध था कि प्राचार्य चन्द्रगुप्त के उग्र तपश्चरण के प्रभाव से उनके तपोवन में मृग-व्याघ्रादि पशु पारस्परिक जन्मजात वैर को भुलाकर साथ-साथ रहते थे। वन देवता उन महातपस्वी प्राचार्य की अहर्निश सेवा उपासना करते रहते थे। उनका वचनमात्र ही व्यन्तर-बाधा, सिंह-व्याघ्रादि पशुओं के प्रारणापहारी उपसर्ग और सभी प्रकार के स्थावर-जंगम विष प्रादि का निवारण करने में महामन्त्र तुल्य समर्थ था। उन महामुनि प्राचार्य चन्द्रगुप्त के अन्वय में अर्थात् वंश में लोक-प्रसिद्ध प्राचार्य पद्मनन्दि हुए।
उन पद्मनन्दि प्राचार्य के ही कुन्दकुन्द और उमास्वाति ये दो नाम बताये जाते हैं। लोग उन्हें गृध्रपिच्छाचार्य के नाम से भी जानते और चारण (खेचरी) ऋद्धि से सम्पन्न मानते थे। इन कुन्द कुन्द आचार्य के प्राचार्यकाल में नन्दिसंघ में संयोगवशात् सभी मुनि देशीय' अर्थात् उस युग में 'देण' नाम से प्रसिद्ध स्थान विशेष के गृहस्थों में से ही श्रमण धर्म में दीक्षित हा थे, इस कारण नन्दिसंघ का नाम प्रा० कुन्दकुन्द के प्राचार्यकाल में ही लोकों में देशी गगा के गुरगवाचक नाम से प्रसिद्ध अथवा रूढ़ हो गया।
१. कहीं-कहीं कोई क्षेत्र प्राज भी देश के नाम से पहचाना जाता है ।
कुन्दकुन्दस्य कालेऽम्य, नन्दिसंघे हि केवलम् । सर्वेऽपीतीह देशीयाः, संजाताः मुनिपुंगवाः ॥७५।। नम्माद्देशीय गणेत्याख्यानं लोकात्समागतम् । कुण्डकुन्द-मुनीन्द्रस्य, काले तत्संघ संगतम् ।।६।। ..- जैनाचार्य परम्पग महिमा. हम्नलिखित प्रति, प्रोरियेन्टल मेन्युस्क्रिप्टम, लायब्रेरी,
मद्रास यूनिवर्सिटी (मेकेजे कलेक्शन्म) ।
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