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भट्टारक परम्परा ]
[ १४६ ऐसी स्थिति में आधुनिक विद्वानों के इस अभिमत पर ही विश्वास कर संतोष कर लेने को मन करता है कि "भट्टारक परम्परा को स्थापना किसने, किस समय और किस स्थान पर की, इस सम्बन्ध में कुछ भी कहना असंभव है।" खोज का क्षेत्र विस्तीर्ण है। शोधकर्ताओं की दृष्टियां भी अपनी-अपनी रुचि के अनुसार भिन्न-भिन्न होती हैं। संभव है कुछ तथ्यों के महत्व पर शोधकर्तामों की रष्टि न पहुंची हो, उनकी दृष्टि से वे ओझल रह गये हों अथवा दृष्टि में प्रा जाने पर भी उनकी शोध दृष्टि में उन्हें वे उपयोगी प्रतीत न हुए हों। ऐसी स्थिति में कुछ और प्रयास करने पर अन्धकार में विलीन कुछ तथ्यों को प्रकाश में लाया जा सकता है, इस विषय में कोई नवीन उपलब्धि की जा सकती है। इस प्राशा का अवलम्बन ले इस दिशा में कुछ और खोज और छानबीन की गई।
ऐतिहासिक तथ्यों की खोज के अभियान में गवर्नमेंट प्रोरियेन्टल मेन्युस्क्रिप्ट्स लायब्ररी, मद्रास यनिवर्सिटी बिल्डिंग, मद्रास की हस्तलिखित प्रतियों के संग्रह को देखते समय कन्नड़ भाषा के लगभग २५० वर्ष पूर्व लिखे गये 'जैनाचार्य परम्परा महिमा, नामक एक प्राचीन ग्रन्थ को देखने का अवसर मिला। वहां के अधिकारियों के सौजन्य से इस कन्नड़ लिपि में लिखे ग्रन्थ की देवनागरी लिपि की प्रति प्राप्त हुई। उसे पढ़ा तो उसमें भट्टारक परम्परा के प्रादुर्भाव के साथ-साथ किन परिस्थितियों में, किस समय और किसने भट्टारक परम्परा को आधुनिक परिवेश में सर्वप्रथम जन्म दिया इन सब बातों का स्पष्ट एवं सुविस्तृत विवरण उपलब्ध हो गया। इस विस्तृत विवरण के साथ उसमें भट्टारक सम्प्रदाय के मुख्य पीठाधीश दक्षिणाचार्य पट्ट परम्परा के प्राचार्यों की अनुक्रमश: नामावली और कतिपय प्राचार्यों का प्रावश्यक परिचय भी दिया गया है। अनुष्टुप छन्द के ३४६ श्लोकों के इस ग्रन्थ में भट्टारक परम्परा के प्रादुर्भाव से पूर्व की परम्परा का भी संक्षिप्त विवरण दिया गया है जो इस प्रकार है :---
मट्टारक परम्परा से पूर्व :- "महामहिम गणाधिनाथ गौतम के पश्चात् उनकी लोकाचार्य (प्रभु महावीर के सम्पूर्ण संघ के एक मात्र प्राचार्य) परम्परा के श्रुतकेवलियों में अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु हुए। उनके पश्चात् की लोकाचार्य परम्परा में अष्टांग निमितज्ञ मागम निष्णात अहंदबलि प्राचार्य हुए। बहुत से मुनियों के साथ जिस समय वे उज्जयिनी में थे, उस समय वर्षाकाल के प्रागमन से पूर्व प्रह
बलि की प्राज्ञानुसार अनेक मुनि वर्षावास हेतु विभिन्न प्रदेशों में चले गये पौर कतिपय मुनि उनके साथ उज्जयिनी में हो रहे। वर्षाकाल व्यतीत हो जाने पर विभिन्न प्रदेशों में गये हुए वे मुनि अपने-अपने शिष्य समूह सहित उज्जयिनी लौटे पौर प्राचार्य महदबलि को वन्दन-नमन कर समुचित स्थान पर बैठ गये। उन्होंने प्रर्हद्बलि से निवेदन किया-प्राचार्य भगवन् ! हम लोग अपने-अपने शिष्य समूह सहित पुनः प्रापकी सेवा में लौट पाये हैं। "अपने-अपने शिष्य समह सहित" इन शब्दों को सुनते ही प्राचार्य अर्हद्वलि ने अनुभव किया-यह सब काल का प्रभाव है
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