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________________ भट्टारक परम्परा ] [ १४७ द्रविड़ संघ के जिस प्रकार के आचरण का, मठ-मन्दिर, वसति-निर्माण, शीतल जल से स्नान और कृषि वाणिज्य आदि से जीवन-यापन का उल्लेख आचार्य देवसेन ने 'दर्शनसार' में किया है, ठीक उसी से मिलता-जुलता आचरण भट्टारकों का था, यह एक निर्विवाद तथ्य है । इस प्रकार द्रविड़ संघ की उत्पत्ति के सम्बन्ध में जो यह उल्लेख दर्शनसार में मिलता है, वह एक प्रकार से परोक्षरूपेण भट्टारक परम्परा की उत्पत्ति का ही उल्लेख प्रतीत होता है । इस प्रकार भट्टारक परम्परा के प्रादुर्भाव के सम्बन्ध में अस्पष्ट अथवा स्पष्ट जो भी माना जाय यह दूसरा अभिमत है। . बिना किसी परम्परा विशेष का नामोल्लेख किये, भट्टारक परम्परा की उत्पत्ति के सम्बन्ध में तीसरा उल्लेख श्रुतसागरसूरि का षट्प्राभृत टीका का उपलब्ध होता है, जो इस प्रकार है : "कलौ किल म्लेच्छादयो नग्नं दृष्ट्वोपद्रवं यतीनां कुर्वन्ति, तेन मण्डपदुर्गे श्री वसन्तकीर्तिना स्वामिना चर्यादि वेलायां तट्टीसादरादिकेन शरीरमाच्छाद्य चर्यादिकं कृत्वा पुनस्तन्मुंचतीत्युपदेशः कृतः संयमिनामित्यपवादवेषः ।" अर्थात्-कलिकाल में मुनियों को नग्न देख कर म्लेच्छादिक उपद्रव करते हैं। इस कारण मण्डप दुर्ग में श्री वसन्तकोति स्वामी ने भिक्षाटन के समय मुनियों को चटाई अथवा तापड़ एवं चादरा आदि से शरीर को (नग्नता को) ढंक (पाच्छादित) कर भिक्षाचरी करने और भिक्षाचरी कर चुकने के अनन्तर पुनः चादर आदि का परित्याग करने का उपदेश दिया। यह अपवाद वेष है। .. इस उल्लेख में भट्टारक परम्परा का कहीं कोई नाम नहीं दिया गया है । ऐसी स्थिति में यह कह देना कि वसन्तकीर्ति स्वामी ने भट्टारक परम्परा की स्थापना की-किसी भी तरह प्रामाणिक नहीं माना जा सकता। वस्तुतः इस कथन का मूल्य एक निराधार अनुमान से अधिक नहीं आंका जा सकता। इसके अतिरिक्त भट्टारक परम्परा के आचार्यों की जो शोधपूर्ण सूची श्री विद्याधर जोहरापुरकर ने अपनी रचना "भट्टारक संप्रदाय' के परिशिष्ट ३ में दी है, उसके अनुसार भट्टारक वसन्तकीति के केवल दो उल्लेख उपलब्ध हए हैं। पहला उल्लेख है बलाल्कारगण मन्दिर अंजनगांव का और दूसरा उल्लेख है "जैन सिद्धान्त भास्कर, त्रैमासिक, भा० १, बिरसा ४, पृ० ५२ का । पहला उल्लेख वि. सं. १२६४ का है, जो इस प्रकार है : “संवत् १२६४ माह सुदि ५ वसन्तकीर्तिजी, गृहस्थ वर्ष १२, दीक्षा वर्ष २०, पट्ट वर्ष १, मास ४, दिवस २२, अन्तर दिवस ८, सर्व वर्ष ३३ मास ५ वघेरवाल जाति, पट्ट अजमेर ।"२ १. षट् प्रामृत टीका पृष्ठ ३१ २. भट्टारक सम्प्रदाय, लेखांक २२३, पृ० ८६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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