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________________ १४६ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३ की। दिगम्बर परम्परा के इतिहासविदों तथा इतिहास में अभिरुचि रखने वाले दूसरे विद्वानों ने भी कतिपय ऐतिहासिक घटनाओं की तिथियों के निर्णय के सम्बन्ध में देवसेन के 'दर्शनसार' को महत्वपूर्ण स्थान दिया है । भट्टारक परम्परा का प्रत्यक्ष रूप से नाम न लेकर परोक्ष रूप में संभवतः इसी परम्परा के उद्भवकाल के सम्बन्ध में आचार्य देवसेन ने 'दर्शनसार' में लिखा है : सिरि पुज्जपाद सीसो, दाविडसंघस्स कारगो दुट्ठो । रणामेण वज्जणंदि, पाहुडवेदी महासत्तो ॥ २४ ॥ अप्पासुय चरणयाणं, भक्खणदो वज्जिदो मुरिंणदेहिं । परिरइयं विवरीयं, विसेसियं वग्गणं चोज्जं ॥२५ ।। वीएसु पत्थि जीवों, उन्भसरणं रणत्थि फासुगं पत्थि । सावज्ज ण हु मण्णइ, ण गणइ गिहकप्पियं अट्ठ ।। २६ ।। कच्छं खेत्तं वसहि, वाणिज्जं कारिऊरण जीवंतो । ण्हतो सीयल गीरे, पावं पउरं स संजेदि ॥ २७ ॥ . पंच सए छन्वीसे, विक्कमरायस्स मरण पत्तस्स । दक्खिरण महुरा जादो, दाविड संघों महामोहो ॥ २८ ।। अर्थात्-श्री पूज्यपाद के दुष्ट शिष्य वज्रनन्दि ने द्राविडसंघ की स्थापना की। यह वज्रनन्दि प्राभृतों का ज्ञाता और महासत्वशाली था। अप्राशुक चने खाने का जब उसे मुनियों ने वर्जन किया तो उसने जिनेन्द्र के प्रवचनों से विपरीत प्रायश्चित आदि के नवीन शास्त्रों की रचना की । बीजों में जीव नहीं होते, उद्मशन अथवा प्राशुक नाम की कोई वस्तु नहीं है, इस प्रकार की उसने प्ररूपरणा की। वह वजनन्दि सावध असावद्य को नहीं मानता और न गृहीकल्पित आदि को ही मानता है । वज्रनन्दि का द्रविड़संघ खेती बाडी के माध्यम से, वसतियों के निर्माण से तथा व्यापार आदि करवा कर जीवनयापन करता । शीतल कच्चे जल में स्नान करता हुआ प्रचुर पाप का संचय करता। महाराजा विक्रम के देहावसान के ५२६ वर्ष (वीर नि० सं० ६६६) पश्चात् दक्षिण मथुरा में महामोहपूर्ण द्रविड़ संघ उत्पन्न हुआ। [पृष्ठ १४५ का शेष] स्थापना की। इन दोनों पदों की ओर ध्यान देते तो इस ग्रन्थ का रचनाकाल वि० सं० ६०६ मानने जैसी भूल नहीं करते । क्योंकि वि० सं० ६५३ में घटित घटना का उल्लेख वि० सं० ६०६ में दृव्ध ग्रन्थ में नहीं हो सकता । वास्तव में गाथा सं० ५० में 'रणवसए रणवए' के स्थान पर 'रणवसए रणवईए' होना चाहिये। उसी दशा में यह संगत होगा कि वि० सं० ६६० में रचित ग्रन्थ में वि० सं० ६५३ में घटित घटना का उल्लेख किया गया। -सम्पादक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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