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भट्टारक परम्परा |
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भट्टारक "परम्परा का उद्भव" काल : अब सर्वप्रथम प्रश्न यह उपस्थित होता है कि भट्टारक परम्परा शताब्दियों तक भारत के विभिन्न प्रदेशों में अपना महत्वपूर्ण स्थान बनाये रही और दक्षिणी प्रदेशों में जिसके आज भी सुदृढ़ पुरातन पीठ विद्यमान हैं, उस वर्चस्विनी भट्टारक परम्परा का प्रादुर्भाव वस्तुतः कब, कहां और किन परिस्थितियों में हुआ ?
इस सम्बन्ध में अद्ययुगीन विद्वानों ने भट्टारक परम्परा से सम्बन्धित उपलब्ध ऐतिहासिक उल्लेखों के परिप्रेक्ष्य में, ऊहापोह चिन्तन मनन करने के पश्चात् यही अभिमत व्यक्त किया है कि भट्टारक परम्परा की स्थापना किस आचार्य के द्वारा किस समय, किन परिस्थितियों में और कहां [ किस स्थान ] पर की गई, इस सम्बन्ध में सुनिश्चित रूप से कुछ भी कहना असंभव है । प्राधुनिक विद्वानों द्वारा यथाशक्य शोध के पश्चात् जो अभिमत व्यक्त किया गया है, वह इस प्रकार है :
" इस ग्रन्थ [ भट्टारक सम्प्रदाय ] के विभिन्न प्रकरणों के प्रारम्भिक परिच्छेदों से ज्ञात होगा कि अधिकांश भट्टारक परम्पराओं के ऐतिहासिक उल्लेख . चौथी शताब्दी से प्राप्त होते हैं । इसलिये भट्टारक प्रथा अमुक प्राचार्य ने अमुक समय प्रारम्भ की, यह कहना असम्भव है ।""
इस प्रकार भट्टारक परम्परा के जन्मकाल के सम्बंध में अब तक की गई खोज के आधार पर अभिव्यक्त किया गया यह एक पहला अभिमत है । इस स्पष्ट अभिमत के अतिरिक्त परस्पर एक दूसरे से भिन्न दो और अस्पष्ट अभिमत भी उपलब्ध होते हैं, जिनमें भट्टारक परम्परा का स्पष्टत: नामोल्लेख तो नहीं है किन्तु उनमें परम्पराविशेष के श्रमरणों के प्रचार-व्यवहार का जो उल्लेख किया गया है, वह भट्टारक परम्परा के आचार-विचार-व्यवहार प्रादि से मिलता-जुलता है ।
उन शेष दो अस्पष्ट अभिमतों में से पहला अभिमत है देवसेन नामक आचार्य का । प्राचार्य देवसेन ने प्राचीन गाथानों का संग्रह-संकलन कर विक्रम सं. ६६० में "दर्शनसार” नामक ५१ गाथाओं के एक अतिलघुकाय ग्रन्थ की रचना
१. "भट्टारक
सम्प्रदाय' की श्री विद्याधर जोहरापुरकर द्वारा प्रस्तुत प्रस्तावना, पृष्ठ ४ ।
२. 'दर्शनसार' की गाथा सं० ५० में गवसए गवए' शब्द को देख कर कतिपय विद्वानों ने इस ग्रन्थ की रचना का समय वि० सं० २०६ माना है। वस्तुतः यह ठीक नहीं है । यदि वे गाथा सं० के आदि पद 'सत्तसए तेवणे' और तदनन्तर ४० के प्रादि पद 'तत्तो दुसएतीदे' - प्रर्थात्: वि० सं० ७५३ के पश्चात् २०० वर्ष बीत जाने पर अर्थात् वि० सं० ७५३ में रामसेन ने निष्पिच्छ संघ की
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गाथा सं
[ शेष टिप्पणी पृष्ठ १४६ पर ]
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