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________________ . [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३ किन्तु भट्टारक परम्परा अद्यावधि पर्यन्त भी एक सबल धर्म संघ के रूप में दक्षिणी प्रदेशों में विद्यमान है। प्राज चैत्यवासी परम्परा का एक भी ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है । जिनवल्लभसूरि द्वारा रचित संघपट्टक नामक ४० श्लोकों के मूल ग्रन्थ पौर उसकी टीका के प्राधार पर चैत्यवासी परम्परा की कतिपय मान्यताओं को संकलित कर उन पर प्रकाश डाला गया है। परन्तु भट्टारक परम्परा के तो प्रद्यावधि पीठ तक विद्यमान हैं और इस परम्परा की मान्यतामों पर प्रकाश डालने वाले अनेक ग्रन्थ भी उपलब्ध हैं। इस प्रकार इन दोनों परम्पराओं की मान्यतापों पर यत्किचित् प्रकाश डालने वाली सामग्री के परिप्रेक्ष्य में सूक्ष्म इष्टि से देखने पर दोनों परम्परामों में मोटे रूप से केवल नामभेद का ही मल अन्तर दृष्टिगोचर होता है । छत्र, चामर, सिंहासन, गन्दिका प्रादि प्रादि राजचिन्हों के साथ साथ गज, रथ, शिविकाए', वाहन, दास, दासी, सोना, चांदी प्रादि विपुल परिग्रह चैत्यवासी परम्परा के प्राचार्य भी रखते थे और भट्टारक परम्परा के प्राचार्य भी । चैत्यवासियों के स्वामित्व में विशाल चैत्य होते थे तो भट्टारकों के स्वामित्व में सूविशाल मठ और चैत्य दोनों ही। चैत्यवासी परम्परा के प्राचार्यों के पास अचल सम्पत्ति में से ग्राम एवं कृषिभूमि तथा चल सम्पत्ति में से गाय, भंस, बैल मादि रहते थे कि नहीं, इसका कोई स्पष्ट प्रमाण अद्यावधि उपलब्ध जैन वांग्मय में कहीं दृष्टिगोचर नहीं होता। परन्तु- भट्टारकों के पास, दिगम्बर एवं श्वेताम्बर दोनों ही परम्परामों के भट्टारकों के अधिकार में ग्राम, कृषि भूमि, गाय, भैंस, बैल, प्रादि रहते थे, इस बात के अनेक पुष्ट प्रमाण प्राज भी उपलब्ध हैं। जैन जगत् के लब्धप्रतिष्ठित विद्वान् दलसुख भाई मालवारिणयां ने भी इसके प्रमाण स्वरूप अपने स्वयं के अनुभव सुनाते हुए लिखा है :"मैंने अपने अध्ययन काल में जयपुर में यतिजी को बग्घी गाड़ी में बैठकर जाते हुए रोज देखा है । मुंह पर मुंह पत्ति भी लगी देखी है।" राजारों एवं कोटयधीशों के पहनने योग्य बहमल्य जरी के काम के और रेशमी वस्त्र चैत्यवासी परम्परा के आचार्य भी पहनते थे और भट्टारक परम्परा के आचार्य भी। इसी प्रकार राज्याश्रय भी चैत्यवासी और भट्टारक इन दोनों ही परम्पराओं को प्राप्त था। . वर्तमान काल में जनसाधारण की प्रायः यही धारणा है कि भट्टारक परम्परा का प्रचलन केवल दिगम्बर संघ में ही हुआ। परन्तु वस्तु स्थिति इससे भिन्न रही है क्योंकि श्वेताम्बर और यापनीय संघों में भी भट्टारक परम्परा प्राचीन काल में प्रचलित हुई थी। दिगम्बरं परम्परा के भट्टारकों के समान यापनीय एवं श्वेताम्बर परम्परा के भट्टारकों के भी अनेक स्थानों पर पीठ थे। यह भी अनुमान किया जाता है कि दिगम्बर यापनीय और श्वेताम्बर इन-तीनों ही संघों में भट्टारक परम्परा का प्रचलन, नगण्य अन्तर को छोड़ लगभग एक ही समय में हुआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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