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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३ महान् प्रभावक यापनीय परम्परा के भट्टारकों के भी नाम सम्मिलित कर लिये गये हों।
उपरिलिखित पट्टावली में प्रारम्भ के भट्टारकों का जो समय दिया गया है वह ऐतिहासिक तथ्यों की कसौटी पर खरा नहीं उतरता । उदाहरण के तौर पर भद्रबाहु द्वितीय का समय ई० सन् ४ उल्लिखित है किन्तु प्राचीन पुष्ट प्रमाणों से इनका समय दिगम्बर परम्परा के प्रागम: तुल्य मान्य धवला आदि ग्रन्थों से अंगघर काल अर्थात् वीर नि. सं. ६८३ के पर्याप्त समय पश्चात् का सिद्ध होता है ।
प्राचार्य विमल सेन के शिष्य प्राचार्य देव सेन द्वारा रचित भाव संग्रह में इन नैमित्तिक भद्रबाह का समय विक्रम सं. १३६ तदनुसार वीर नि. सं. ६०६ उल्लिखित है।'
इन नैमित्तिक भद्रबाहु से पर्याप्त समय पश्चात् हुए प्रार्य माघनन्दि का समय वीर निर्वाण की आठवीं शताब्दी के अन्तिम दो दशक और नौवीं शताब्दी के प्रथम दशक के बीच का सिद्ध होता है।
इन सब तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में विचार करने पर यही अनुमान किया जाता है कि भट्टारक परम्परा का एक संघ के रूप में उदय (जिसे भट्टारक परम्परा के दूसरे स्वरूप की संज्ञा दी जा सकती है) वीर नि.सं. ७८४ के पास पास हुआ।
भट्टारक परम्परा के इस दूसरे स्वरूप के प्राचार्यों का क्रम सेन संघ (पंच स्तूपान्वयी) प्राचार्य वीर सेन (विक्रम सं. ८३० तदनुसार वीर नि. सं. १३००) के प्रगुरू भट्टारक चन्द्र सेन से इस परम्परा के ५२ वें भट्टारक वीर सेन (विक्रम सं. १६३६ से १६६५ तदनुसार वीर नि.सं. २४०६-२४६५) तक क्रमबद्ध उपलब्ध होता है।
इस भट्टारक परम्परा के प्राचार्य वीर सेन ने षखण्डागम की धवला टीका, कषाय पाहुड़ की जयधवला २० हजार श्लोक प्रमाण, प्राचार्य जिन सेन ने जयधवला ४० हजार श्लोक प्रमाण, पार्वाभ्युदय आदि पुराण, उनके शिष्य गुण
' छत्तीसे वरिस सए, विक्कम रायस्स मरण पत्तस्स ।
सौरठे उप्पण्णो, सेवड़ संघो हु वल्लहीए ।। ५२ । प्रासी उज्जेणीणयरे, पायरियो भद्दबाहुणामेण ।।
जाणिय मुरिणमित्तधरो, भणियो मंघो रिणयो तेण ।। ५३ ।। २ जैन धर्म का मालिक इतिहास भाग २, पृष्ठ ७६४ .. ३ भट्टारक सम्प्रदाय, प्रो. वी. पी. जोहरापुरकर, पृष्ठ १-३८
-भावसंग्रह
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