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भट्टारक परम्परा ]
[ १४१ जितनी कृतियां उपलब्ध हैं, उनमें से किसी एक में भी प्राचार्य कुन्द कुन्द ने अपन गुरु का नामोल्लेख तक नहीं किया है।
जिस प्रकार प्राचार्य कुन्द कुन्द ने अपने किसी भी ग्रन्थ में अपने गुरु का, साक्षात गुरु का अथवा विद्या गुरु का नामोल्लेख नहीं किया, उसी प्रकार भट्टारक परम्परा के प्राचार्य वीर सेन (धवलाकार वि. सं ८१६, ८३०), जिनसेन (जयधवलाकार, वि.सं.८३७), गुरणभद्र, लोकसेन (उत्तर पुराणकार वि.सं. ६५५) न, हरिवंशपुराणकार प्राचार्य जिनसेन (विक्रम की नववीं शताब्दी) ने तथा तिलोयपण्णत्तिकार यतिवषभ (वि.सं.५३५) ने अपने ग्रन्थों में प्राचार्य कृन्द कुन्द का कहीं नामोल्लेख तक नहीं किया है। इससे यही अनुमान किया जाता है कि आचार्य कुन्द कुन्द भट्टारक परम्परा से पृथक् हुए थे अथवा पृथक् किये गये थे।
भगवान महावीर के धर्म मंघ के महान आचार्य स्थल भद्र ने चतुर्दश पूर्वघर आचार्य भद्रबाहु से १० पूर्वो का पूर्णरूपेण तथा शेप चार पूर्वो के सूत्र मात्र का अध्य. यन कर थु त परम्परा को विलुप्त होने से बचाकर धर्म संघ की महती मेवा की। इसी कारण जिस प्रकार श्वेताम्बर परम्परा के भक्तों द्वारा नित्य प्रति निम्नलिखित श्लोक के माध्यम से उनका मादर स्मरण किया जाता है: ---
मगल भगवान् वीरो, मंगल गौतमःप्रभ ।
मगल स्थलिभद्राद्या:, जैन धमा स्तू मंगले। . उसी प्रकार दिगम्बर परम्परा की प्राचीन मान्यताओं का पुनरुद्धार कर पुन: स्थापना करने के कारण प्राचार्य कुन्द कुन्द का, दिगम्बर परम्परा के भक्तों द्वारा प्रतिदिन भक्ति सहित निम्नलिखित रूप में स्मरण किया जाता है :
मंगलं भगवान् वीरो, मंगलं गौतम प्रभुः ।
मगलं कुन्द-कुन्दाद्याः, जैन धर्मोऽस्तु मंगलं ।। इन मव लथ्यों में यही प्रमारिणत होता है कि वीर निर्वाग्ग को ग्राठवा शताब्दी के अन्तिम समय मे लेकर वीर नि० को १०वीं शताब्दी के प्रथम दशक के बीच किमी समय भट्टारक परम्परा के दूसरे स्वरूप की स्थापना हुई।
इम पट्टावली में 'नन्दि' और 'कीति' अन्त नाम वाले यात्रा यों का बाहुल्य है । प्राय: सभी विद्वानों का, इतिहासविदों का अभिमत है कि नन्यन्त और कीर्त्यन्त नाम पूर्व काल में प्राय: यापनीय प्राचार्यों एवं श्रमरणों के होते थे । अतः अनुमान किया जाता है कि भट्टारक परम्परा की इस पट्टावली में उस समय के
ग्राचार्य माघनन्दी ग्रार प्राचार्य कुन्द कुन्द के समय के लिये प्राचार्य हम्नी मल जी मा. हाग रचित 'जैन धर्म का मालिक इतिहाम भाग २". पृष्ठ ८ से ७८ द्रष्टव्य है ।
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