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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३
इन सब तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में विचार करने पर निर्विवाद रूप से सिद्ध हो जाता है कि नन्दी संघ की यह पट्टावली वस्तुत : भट्टारक परम्परा की ही पट्टा: वली है और इस पट्टावली के तीसरे आचार्य माघनन्दी ही उस प्रथम स्वरूपवाली भट्टारक परम्परा के प्रवर्तक थे, जिस पर ऊपर विशद रूपेण प्रकाश डाला गया है।
___ इस पट्टावली के अतिरिक्त एक और भी बहुत बड़ा प्रबल प्रमाण इस तथ्य की पुष्टि करने वाला है कि उपरि वर्णित प्रथम स्वरूप की भट्टारक परम्परा के जनक आदि भट्टारक वस्तुत: भद्रबाहु द्वितीय के शिष्य एवं आचार्य गुप्ति गुप्त के शिष्य माघनन्दी थे। वह प्रबल प्रमारण यह है कि इस पट्टावली में भट्टारक परम्परा का पांचवां पट्टाधीश आचार्य कुन्द कुन्द को बताया गया है, जो निर्विवाद रूपेण दिगम्बर परम्परा के पुनरुद्वारक, महान् क्रान्तिकारी पुनः संस्थापक माने गये हैं। प्राचार्य कुन्दकुन्द ने अपने दादा गुरु द्वारा संस्थापित भट्रारक परम्परा की नव्य नूतन मान्यताओं के विरुद्ध विद्रोह किया । वे माघनन्दी के शिष्य जिनचन्द्र के पास भट्टारक परम्परा में ही दीक्षित हुए। मेधावी मुनि कुन्द कुन्द ने अध्ययन पूर्ण करने के पश्चात् दिगम्बर परम्परा द्वारा सम्मत आगमों के निदिध्यासन-चितन-मनन से जब जिनेन्द्र-प्रभू द्वारा प्ररूपित जैन धर्म के वास्तविक स्वरूप और तीर्थंकरों द्वारा प्राचरित श्रमण धर्म को पहिचाना तो उन्हें अपने प्रगुरु माघनन्दि द्वारा संस्थापित धर्म और श्रमणाचार विषयक मान्यताएं धर्म और श्रमणाचार के मूल स्वरूप के अनुरूप प्रतीत नहीं हुई । उन्होंने संभवतः अपने प्रगुरु, गुरु और भट्रारक संघ द्वारा सम्मत उन कतिपय अभिनव मान्यताओं के समलोन्मलन और पुरातन मान्यताओं की पुनर्संस्थापना का संकल्प किया। इस प्रकार की अवस्था में गुरु-शिष्य के बीच, भट्टारक संघ और क्रान्तिकारी मुनिपुंगव कून्द कन्द के बीच क्रमशः विचार भेद, मनोमालिन्य, संघर्ष और अलगाव (पृथक्त्व) का होना स्वाभाविक ही था। प्रमाणाभाव में यह नहीं कहा जा सकता कि वे स्वयं ही अपने गुरु से पृथक हुए अथवा संघ द्वारा पृथक् किये गये। कुछ भी हो वे पृथक् हुए और जैसा कि उत्तरकालवर्ती सभी क्रियोद्धारकों-धर्मक्रान्ति के सूत्रधारों ने किया, ठीक उसी प्रकार मुनिपुंगव कुन्द कुन्द ने भी अपने गुरु और संघ की मान्यताओं के विरुद्ध क्रांति का शंखनाद फंका। उस धर्म क्रान्ति में, उस क्रियोद्धार में कुन्द कुन्द को पर्याप्त सफलता मिली। भूली-बिसरी प्राचीन मान्यताओं की उन्होंने अपेक्षाकृत कड़ी कट्टरता के साथ पुनः संस्थापना की । स्वयं द्वारा की गई धर्मक्रान्ति की परिपुष्टि के लिये उन्होंने अनेक सैद्धान्तिक ग्रन्थों की रचनाएं की जो आज भी दिगम्बर परम्परा में पागम तुल्य मान्य हैं।
____ अपने गुरु से, अपने प्रगुरु द्वारा संस्थापित भट्टारक संप्रदाय से पृथक् हो जाने के कारण ही प्राचार्य कुन्द कुन्द ने कहीं अपने गुरु का नामोल्लेख तक नहीं किया है । वर्तमान में दिगम्बर परम्परा की मान्यतानुसार प्राचार्य कुन्द कुन्द की
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