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________________ मुद्रण एवं प्रकाशन भी हो गया जिसे देखकर पंन्यासजी ने परम सन्तोष अभिव्यक्त किया। इस अनुपम अनमोल सहयोग देकर की गई जिनशासन की प्रभावना के लिए पंन्यासजी स्व. श्री कल्याणविजयजी म.सा. के प्रति हम अपनी आंतरिक कृतज्ञता प्रकट करते हैं। हमें खेद है कि अपनी प्रभावना के इस फल को देखने के लिए पंन्यास श्रीजी हमारे बीच आज नहीं रहे। इस ग्रन्थ के अतिरिक्त 'महा निशीथ', 'सन्दोह दोहावलि', 'संघ पट्टक', 'आगम अष्टोत्तरी' एवं 'संघ पट्टक' की भूमिका आदि महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों से भी बड़ी महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक सामग्री हमें मिली। इन ग्रन्थों में निबद्ध उल्लेखों से स्पष्ट पता लगा कि किस प्रकार महावीर के धर्म संघ में एवं उसकी मूल श्रमण परम्परा में विकृतियों ने घर किया एवं कालान्तर में उन विकृतिजन्य परम्पराओं ने क्या-क्या किया। इन उल्लेखों से यह भी पता चला कि किस प्रकार समय-समय पर इन विकृतिजन्य परम्पराओं का सशक्त विरोध किया गया और किस प्रकार समय-समय पर हुए महान् आचार्यों ने भी इन विकृतिजन्य परम्पराओं के कार्यकलापों से क्षुब्ध होकर अपने भावों को तीव्र अभिव्यक्ति दी। इनमें एक प्रमुख आचार्य हुए नवांगी वृत्तिकार अभयदेव सूरि, जिन्होंने इन विकृतिजन्य परम्पराओं के विरोध में अपने स्वर को जिस रूप में निम्नलिखित सशक्त अभिव्यक्ति दी, प्रसंगवशात् उसका उल्लेख यहां भी करने का लोभ हम संवरण नहीं कर रहे हैं : देवढि खमासमणजा परं-परं भावओ वियाणेमि । सिढिलायारे ठविया दव्वओ परम्परा बहुहा ॥ अर्थात देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण पर्यन्त भाव परम्परा रही, यह मैं जानता हूँ। उनके पश्चात् प्रभु महावीर के धर्म संघ में शिथिलाचारियों ने अनेक प्रकार की द्रव्य परम्पराएं स्थापित कर दी। अभयदेवसूरि जैसे महान् प्रभावक आचार्य द्वारा अभिव्यक्त यह उनकी अन्तर्व्यथा उस काल की स्थिति पर बड़ा महत्वपूर्ण प्रकाश डालती है। इसी अन्तर्व्यथा को प्रकट करने वाले जिनशासन प्रभावकों की कड़ी में अन्तिम प्रभावक के रूप में लोंकाशाह का नाम जग-विश्रुत है। इस खोज वृतान्त से यह तो पता चला कि इन विकृत परम्पराओं का प्रभाव और इनका कार्यक्षेत्र सम्पूर्ण भारतवर्ष रहा । पर इनका प्रमुख कार्यक्षेत्र सौराष्ट्र, कच्छ, गुजरात, राजस्थान, मध्यभारत एवं उत्तरप्रदेश माना जाता रहा क्योंकि यह खोजकार्य भी मुख्यतः उत्तरी भारत तक ही सीमित रहा। भारत के दक्षिणापथ में क्या स्थिति रही इस सम्बन्ध में भी खोज करने की तीव्र आवश्यकता हमें अनुभव हुई जिसके बिना हमारा इतिहास का कार्य अधूरा ही रहता। Jain Education International For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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