________________
भट्टारक परम्परा ]
[ १३५
ओर आकर्षित किया। उन्होंने राजसभात्रों में सम्मानास्पद स्थान प्राप्त किये। कतिपय भट्टारकों को राज्याश्रय प्राप्त हुआ । राजाओं द्वारा सम्मानित होने तथा राजगुरु बनने के परिणाम स्वरूप भट्टारकों का सर्व-साधारण पर भी उत्तरोत्तर प्रभाव बढ़ने लगा। जन सहयोग प्राप्त होने पर भट्टारकों ने बड़े-बड़े जिन मन्दिरों के निर्माण, उच्च सैद्धान्तिक शिक्षा के शिक्षण केन्द्रों के उद्घाटन, संचालन आदि अनेक उल्लेखनीय कार्य अपने हाथों में लिए । उन प्रशिक्षण केन्द्रों से उच्च शिक्षा प्राप्त विद्वान् स्नातकों ने धर्म समाज और साहित्य के क्षेत्र में अनेक उल्लेखनीय कार्य किये। अनुमानतः वीर निर्वाण सं. १०१० के आसपास इक्ष्वाकु (सूर्यवंशी) कदम्बवंश के राजा शिवम्गेश वर्मा द्वारा अर्हत्प्रोक्त सद्धर्म के प्राचरण में सदा तत्पर श्वेताम्बर महा श्रमण संघ के उपभोग हेतु, निर्ग्रन्थ महाश्रमण संघ के उपभोग के लिए तथा अर्हत् शाला परम पुष्कल स्थान निवासी भगवान् अर्हत् महाजिनेन्द्र देवता के लिए दिये गये काबबंग नामक गांव के दान से यह स्पष्ट रूप से प्रकट होता है कि जिन श्वेताम्बर, दिगम्बर, एवं यापनीय संघों के प्राचार्यों श्रमणों ने भूमि दान ग्राम दान लेना प्रारम्भ कर दिया था, वे वस्तुत: भट्टारक परम्परा के सूत्रधार थे।' विशुद्ध श्रमणाचार का पालन करने वाले पंच महाव्रतधारी पूर्णरूपेण अपरिग्रही श्रमणों के लिए इस प्रकार भूमिदान ग्रहण करना पूर्णतः शास्त्र विरुद्ध है। ऐसी स्थिति में श्वेताम्बर और दिगम्बर महाश्रमण संघ ने कदम्ब नरेश शिव मृगेश वर्मा द्वारा श्रमणों अथवा श्रमण संघ के उपभोग के लिए दिये गये दान को स्वीकार किया-इससे यही फलित होता है कि-इस अभिलेख में यद्यपि भद्रारक शब्द का उल्लेख नहीं है तथापि भट्टारकों के अनुरूप उनके ग्रामदानादि ग्रहण करने के आचरण से यही सिद्ध होता है कि वे श्वेताम्बर दिगम्बर अथवा यापनीय अथवा कूर्चक संघ वस्तुतः भट्टारक संघ ही थे । उन संघों ने वीर निर्वाण की ग्यारहवीं शताब्दी के प्रथम दशक तक अपने संघ के नाम से पूर्व भट्टारक विशेषण भले ही नहीं लगाया हो पर उनके प्राचार-विचार और कार्यकलाग भट्टारक-प्राचार-विचार वृत्ति की ओर उन्मुख हो चके थे।
यहां एक बड़ा ही महत्वपूर्ण तथ्य ध्यान में रखने योग्य यह है कि मथुरा के कंकाली टीले की खुदाई से कनिष्क संवत ५ तदनुसार वीर नि० सं० ६१० से ई. सन् ४३३ तदनुसार वीर नि. सं. ६६० तक के जो शिला-लेख उपलब्ध हुए हैं, उन शिला-लेखों में आयाग-पट्टों, दीप-स्तम्भों के निर्माण, जिनेश्वरों की मतियों की स्थापना आदि के उल्लेख तो हैं किन्तु न तो किसी प्राचार्य द्वारा अथवा मनि द्वारा किसी प्रकार के दान के ग्रहण किये जाने का कोई उल्लेख है और न कहीं भट्टारक परम्परा का नामोल्लेख तक ही।
१. इंडियन टीवीटीज वाल्युम ७. पेज :-१८ नं० : ५ तथा जन शिला लेव मंग्रह,
भाग २, लेख मं. ६८, पृष्ट ६६.१२
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org