________________
[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - भाग ३
इससे यही प्रतीत होता है कि वीर निर्वाण की दशवीं शताब्दी तक उत्तर भारत में भट्टारक परम्परा के बीज तक का वपन नहीं हुआ था । भट्टारक परम्परा उस समय तक दक्षिरण में और पश्चिम-दक्षिण दिग्विभाग में ही उदित हुई थी ।
१३६ ]
वीरनिर्वाण की ग्यारहवीं शताब्दी के पश्चात् तो प्रायः सभी संघों के आचार्यों, भट्टारकों और श्रमरणों एवं कुरत्तियार के नाम से प्रसिद्ध कतिपय श्रमणी - मुख्यों द्वारा भूमिदान, भवन दान, ग्राम दान, करों के अंशदान, चुंगी की राजकीय आय के अंशदान, व्यापारी संघों की आय के अंशदान, द्रव्य दान, मुनियों को असन-पान-वस्त्र- पात्रादि चार प्रकार के दान दिये जाते रहने की नियमित व्यवस्था के लिए क्षेत्र दान-ग्राम दान-भूमिदान ग्रहरण किये जाने के उल्लेखों से इतने शिला लेख भरे पड़े हैं कि उनकी केवल गणना करने में भी पर्याप्त समय और श्रम की श्रावश्यकता है । इस प्रकार के दान ग्रहण करने वाले आचार्यों एवं भट्टारकों की छोटी-छोटी पट्टावलियां, उनके संक्षिप्त पट्टक्रम भी अनेक शिला लेखों में उपलब्ध होते हैं ।
भट्टारकों की जो पट्टावलियां उपलब्ध हुई हैं, उनके कालक्रम पर शोधपूर्ण दृष्टि से विचार करने पर यह विश्वास करने के लिए बाध्य होना पड़ता है कि वीर निर्वाण की सातवीं शताब्दी में ही भट्टारक परम्परा उस प्रथम स्वरूप में उदित हो चुकी थी, जिस प्रथम स्वरूप पर ऊपर विस्तार के साथ प्रकाश डाल दिया गया है। अधिक गहराई में न जाकर केवल इंडियन एण्टीक्यूरी के आधार पर इतिहास के विद्वानों द्वारा कालक्रमानुसार तैयार की गयी भट्टारक परम्परा के प्रमुख संघनन्दि संघ की पट्टावलि के आचार्यों की नामावलि के शोधपूर्ण सूक्ष्म दृष्टि से अवलोकन पर्यालोचन पर भी यही तथ्य प्रकाश में आता है कि संघ भेद ( वीर नि. सं. ६०९ ) के तीन चार दशक पश्चात् ही भट्टारक परम्परा का एक धर्म संघ के रूप में वीजारोपण हो चुका था ।
भट्टारक परम्परा के उद्भव, प्रसार एवं उत्कर्ष काल के विषय में युक्ति मंगत एवं सर्वजन समाधानकारी निर्णय पर पहुंचने के लिए " नन्दिसंघ- पट्टावलि के प्राचार्यों की नामावलि" बड़ी सहायक सिद्ध होगी, इसी दृष्टि से उसे आदि में ग्रन्त तक यथावत् रूपेण यहां उद्धृत किया जा रहा है :
१
नन्दि संघ की पट्टावल के प्राचार्यों की नामावलि (इण्डियन एन्टीक्यूरी के ग्राधार पर )
१. भद्रबाहु द्वितीय १ (४)
३. माघनन्दि ( ३६ )
Jain Education International
२. गुप्ति गुप्त ( २६ ) ४. जिनचन्द्र ( ४० )
श्रवण वेल्ल की पार्श्वनाथ वस्ति के शिलालेख में वति द्वितीय भद्रवाहु
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org