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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३
प्रादुर्भाव तो देवद्धिगणी क्षमाश्रमण के स्वर्गस्थ होने से लगभग ३५० वर्ष पूर्व ही हो गया था। किन्तु महान् प्रभावक पूर्वधर आचार्यों की विद्यमानता और अधिकाँश श्रावक-श्राविका वर्ग में अध्यात्म परक आगमानुरूपी विशुद्ध धर्म और विशुद्ध श्रमणाचार के प्रति प्रगाढ़ निष्ठा के कारण चैत्यवासी एवं भट्टारक परम्परा के श्रमण जैन समाज में कोई विशेष सम्मान के भाजन नहीं बन सके । इसी कारण उनमें से अधिकांश साधु किसी एक स्थान पर सदा के लिये नियत निवास न कर प्रायः विहरूक ही रहे । .
इन भट्टारकों ने भूमिदान, द्रव्यदान लेना और रुपया पैसा आदि परिग्रह रखना प्रारम्भ कर दिया था।
__ श्वेताम्बर, दिगम्बर और यापनीय इन तीनों संघों के श्रमरणों में से जो जो श्रमण पृथक् हो भट्टारक बने, उन्होंने प्रारम्भ में अपना वेष उसी संघ के श्रमणों के समान रखा जिससे कि वे पृथक् हुए थे । दिगम्बर परम्परा के भट्टारकों ने अपवाद रूप में अनग्न रहना प्रारम्भ कर दिया था। यह था भट्टारक परम्परा का प्रारम्भ काल का प्रथम स्वरूप । लगभग वीर निर्वाण सं. ६४० से लेकर वीर नि.सं. ८८०८२ तक भट्टारक परम्परा का सामान्यत: यही स्वरूप रहा ।
ई. सन् २०० से २२० (वीर नि.सं. ७२७ से ७४७) के बीच की अवधि में सिंहनन्दि नामक प्राचार्य ने दड़िग और माधव (राम और लक्ष्मण) नामक दो इक्ष्वाकुवंशीय राजकुमारों को अनेक विद्यानों में पारंगत कर उनके माध्यम से दक्षिण में जैन धर्मावलम्बी गंग राजवंश की स्थापना की। सिंह नन्दि द्वारा किये गये कार्य-कलापों (जिनका कि सविस्तार उल्लेख आगे गंग राजवंश के प्रकरण में दिया गया है) को देखते हुए अनुमान किया जाता है कि वे यापनीय परम्परा के भट्टारक थे। एक पंच महाव्रतधारी श्रमण से तो, चाहे वह श्वेताम्बर, दिगम्बर अथवा यापनीय परम्परा का क्यों न हो, कभी इस प्रकार की कल्पना नहीं की जा सकती कि वह किसी राजा को उसके सैनिक अभियान में माथ दे अथवा युद्ध में पीठ न दिखाने अथवा युद्ध में उटे रहने का उपदेश दे । पर उन्होंने ऐसा ही सब कुछ किया।
भट्टारक-परम्परा का दूसरा स्वरूप वीर निर्वाण की नौवीं शताब्दी के अन्तिम चरण में भट्टारकों ने अपने मंघों को मुगठित करना प्रारम्भ किया । लोक सम्पर्क बढ़ाने के परिणामस्वरूप उनके संगठन सुदृढ़ होने लगे । मन्दिरों में नियत निवास कर भद्रारकों ने किशोरों को जैन सिद्धान्तों का शिक्षण देना प्रारम्भ किया । औषधि, मन्त्र-तन्त्र प्रादि के प्रयोग से जन-मानस पर अपना प्रभाव जमाना प्रारम्भ किया । भौतिक याकांक्षाओं की पूर्ति हेतु जन-मानस का झकाव भट्टारकों की अोर होने लगा । अपने पाण्डित्य एवं चमत्कारपुर्ण कार्यों के बल पर कतिपय भट्टारकों ने राजाओं को भी अपनी
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