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________________ भट्टारक परम्परा ] [ १३३ भक्तों को भभूति भी देते हैं । सुस्वादु भोजन के लिये ये लोगों की झूठी प्रशंसा-खुशामद करते और सामूहिक भोजों में मिष्टान्न सुस्वादु व्यंजन ग्रहण करते हैं। जिज्ञासुओं को पुनः पुनः पूछने पर भी सच्चा धर्म नहीं बताते । ये लोग स्नान करते हैं, शृंगार करते हैं, सुगन्धित तेल-इत्र-फुलेल का उपयोग करते और स्वयं भ्रष्ट होते हए . भी सदा दूसरों की आलोचना करते रहते हैं । इस प्रकार की विकृतियों से अोतप्रोत स्थिति में भी -- बाला वयंति एवं, वेसो तित्थयराण एसो वि । नमरिणज्जो घिद्धि अहो, सिर सूलं कस्स पुक्करिमो ।। ७६।। अर्थात कुछ अनभिज्ञ-नासमझ लोग कहते हैं कि यह भी तीर्थंकरों का वेष है, इसे भी नमस्कार करना चाहिये। अहो ! उन्हें पुनः पुनः धिक्कार है। शोक ! मैं अपने इस शिरशूल की पुकार किसके आगे करू ? इस प्रकार 'महानिशीथ' और 'संबोध प्रकरण' में उल्लिखित जैन धर्म संघ में उत्पन्न हुई विकृतियों के वर्णन वस्तुतः समुच्चय रूप से मठाधीशों, श्री पूज्यों, भट्टारकों और चैत्यवासियों से ही सम्बन्धित हैं । याकिनी महत्तरा मनु से लगभग २५० वर्ष पूर्व हुए प्राचार्य कुन्द कुन्द ने (जिनके समय के सम्बन्ध में दिगम्बर विद्वानों में भी मतभिन्य है, मतैक्य नहीं) भी लिग पाहड़ में -- ___“जो जोडेज्ज विवाहं किसिकम्मवाणिज्ज जीवधादं च ।" यह उल्लेख किया है। इससे भी यही सिद्ध होता है कि प्राचार्य कुन्द कुन्द के समय में मठवासी परम्परा, चैत्यवासी परम्परा और भट्टारक परम्परा , ये तीनों ही प्रकार की परम्पराए देश के प्रायः सभी भागों में फैल गई थीं, लोकप्रिय एवं वहजन सम्मत हो जाने के फलस्वरूप महान् आचार्यों तक के लिये चिन्ता एवं चर्चा का विषय बन चुकी थीं। ये सब, वीर निर्वाण की सातवीं शताब्दी के मध्य भाग से लेकर वीर निर्वाण की तेरहवीं शताब्दी के अन्तिम अर्द्ध दशक (वीर निर्वाण सं. १२६७) तक के प्राचीन उल्लेख इस ऐतिहासिक तथ्य के प्रबल साक्षी हैं कि वीर नि. सं. ६२० से ६५० के बीच की अवधि में चैत्यवामी परम्परा के साथ साथ भट्टारक परम्परा का भी जन्म हो गया होगा। श्वेताम्बर, दिगम्बर और यापनीय इन तीनों संघों के कतिपय साधुओं ने वनवास, एकान्तवास अथवा गिरिगुहावास का तथा अध्यात्म साधना के पथ का त्याग कर चैत्यवास, वस्तिवास और जनसम्पर्क साधना प्रारम्भ कर दिया था। इस प्रकार भट्टारक परम्परा का चैत्यवासी परम्परा के साथ ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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