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________________ [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३ का उद्धार किया। इसके विपरीत कतिपय शोधरुचि विद्वानों का अभिमत है कि वीर नि. सं. १२२७ से १२९७, तद्नुसार विक्रम सं. ७५७ से ८२७ के बीच की अवधि में प्राचार्य पद पर रहे अनेक ग्रागमों के टीकाकार, समराइच्च कहा, ललित विस्तरा आदि शताधिक ग्रन्थों के रचनाकार एवं महान दार्शनिक याकिनी महत्तरासूनु भवविरह विद्याधर कुल के आचार्य हरिभद्रसूरि ने महानिशीथ का उद्धार किया। __ महानिशीथ का शोधपूर्ण सूक्ष्म दृष्टि से गहन अध्ययन न कर पाने के कारण कुछ विद्धानों ने वीर नि. सं. १०५५ में स्वर्गस्थ हुए युगप्रधान प्राचार्य हारिलअपर नाम हरिभद्रसूरि को महानिशीथ का उद्धारक माना है। यह भ्रान्ति नामसाम्य के कारण हुई है। यदि उन विद्वानों का ध्यान महानिशीथ के द्वितीय अध्ययन की समाप्ति पर दी गई पुष्पिका की ओर जाता तो वे इस प्रकार का अभिमत व्यक्त नहीं करते । द्वितीय अध्ययन की पुष्पिका में स्पष्ट उल्लेख है कि भव-विरह याकिनी महत्तरा-सूनु प्राचार्य हरिभद्र द्वारा खण्डित-विखण्डित प्रति के आधार पर पुनरुद्धरित महानिशीथ की प्रति की प्राचार्य सिद्ध सेन, वडढवाई, हारिल गच्छ के प्राचार्य यक्षदत्त महत्तर-प्राचार्य यक्षसेन और जिनदास गरिण महत्तर आदि ने सराहना करते हुए उसे मान्य किया। ये सभी प्राचार्य भवविरह याकिनी महत्तरा सूनु हरिभद्र सूरि के समकालीन थे।' विद्याधर कूल के प्राचार्य जिनदत्त के शिष्य याकिनी महत्तरासूनु प्राचार्य श्री हरिभद्र सूरि ने अपनी कुति --- 'संबोध प्रकरण' में चैत्यवासियों, भट्टारकों मठाधोशों आदि के वर्चस्व के कारण जैन संघ में उत्पन्न हई विकृतियों का महानिशीथ के उल्लेखों के अनुरूप ही मामिक चित्रण करते हुए लिखा है : कीवो न कूणइ लोयं, लज्जइ पडिमाइ जल्लमूवगइ। सोवाहणो य हिंडइ, बन्धइ कडिपट्टमकज्जे ।।१४।। "ये कायर साधु लुचन नहीं करते, प्रतिमा वहन करने में शर्माते, अपने अंग-प्रत्यंग का मैल उतारते, पद त्राण पहन कर चलते, फिरते और बिना किसी प्रयोजन के ही कटिवस्त्र बांधते हैं । ये कुसाधु चैत्यों और मठों में रहते हैं । पूजा के लिये प्रारम्भ एवं देव द्रव्य का उपभोग करते हैं। जिनमन्दिर, शालाए आदि चुनवाते रंग-बिरंगे सुगन्धित एवं धूपवासित सुन्दर वस्त्र पहन कर घूमते और स्त्रियों के समक्ष गाते हैं। ये कुसाधु साध्वियों द्वारा लाये गये पदार्थ खाते, जल, फल फूल आदि संचित्त द्रव्यों का उपभोग करते और दिन में दो-तीन बार भोजन करते तथा पान लवंगादि भी चबाते रहते हैं । ये लोग मुहूर्त निकालते, निमित्त बताते और ' विस्तृत जानकारी के लिये इसी ग्रन्थ में दिया हुअा हारिल मूरि का प्रकरगा वृष्टव्य है। .-- सम्पादक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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