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________________ . भट्टारक परम्परा ] [ १३१ तीनों पाख्यानों को केवल अपनी संविग्न परम्परा की मुख्य मान्यताओं के पुट के साथ यथावत् रूप में जिस अवस्था में थे, उसी मूल अवस्था में लिख लिये होंगे । यहाँ एक और अति महत्वपूर्ण तथ्य ध्यान में रखने योग्य है कि आर्य देवद्धि- गणि क्षमाश्रमण द्वारा वल्लभी में जो पागमों का लेखन वीर निर्वाण सं. १८० में प्रारम्भ किया जाकर वीर नि.सं. ९६४ में सम्पन्न किया गया, वह वीर नि.सं. ८२४ के आस-पास मथुरा में प्रार्य स्कन्दिल के तत्वावधान में हुई आगम-वाचना के प्रागमों को आधार मान कर तथा प्राचार्य नागार्जुन के तत्वावधान में उसी समय वल्लभी में हुई वाचना को दृष्टिगत रखते हुए किया गया था। इससे यह फलित होता है कि महानिशीथ की जीर्ण-शीर्ण खण्डित-विखण्डित अवस्था में जो प्रति आचार्य हरिभद्र को प्राप्त हुई, उसमें उल्लिखित सावधाचार्य का प्राख्यान उस प्रति के मध्य भागस्थ होने के कारण सम्भवतः वीर नि. सं. ८२४ और उसके पश्चात् वीर नि. सं. ९८० से ६६४ तक हुई पागम वाचनाओं में सर्वसम्मति से स्वीकार किया गया प्रामाणिक पाठ हो । इन सब महत्वपूर्ण तथ्यों के संदर्भ में विचार करने पर यह सिद्ध होता है कि महानिशीथ में सावधाचार्य (कमल प्रभ प्राचार्य) के पाख्यान में चैत्यवासी परम्परा पर जो विशद प्रकाश डाला गया है, वह न केवल वीर नि.सं. ६८० में देवद्धि क्षमाश्रमण के तत्वावधान में हुई पागम वाचना के समय का अपितु वीर नि. सं... ८२४ में हुई आर्य स्कंदिल और नागार्जन के तत्वावधान में हुई पागम वाचनाओं से भी पूर्व का हो सकता है। इससे यह प्रमाणित होता है कि स्कंदिली वाचना और नागार्जुनीया वाचना से पर्याप्त समय पूर्व, वीर निर्वाण की सातवीं शताब्दी के प्रारम्भिक चरण में ही चैत्यवासी परम्परा का प्रादुर्भाव हो चुका था और स्कंदिली वाचना के समय तो वह परम्परा न केवल जन-जन की चर्चा का विषय अपितु समग्र श्रमण संघ और महान आचार्यों के लिये भी चर्चा का विषय बन चकी थी। __ महानिशीथ अभी तक जर्मनी के अतिरिक्त अन्यत्र प्रकाशित नहीं हझा है। इसकी हस्तलिखित प्रतियां भी अति स्वल्प संख्या में हैं। जो प्रतियाँ हैं, वे भी प्राचीन लेखन शैली में लिग्वित होने के कारण प्राकृत भाषा के विद्वानों के लिये भी कठोर श्रम के पश्चात् ही बोधगम्य हैं । इन कारणों से विद्वानों का जितना ध्यान इस महानिशीथ में गिगत विषयों की प्रार प्रापित होना चाहिये था, उतना नहीं हो पाया है। इसके परिणामस्वरूप इस पर अपेक्षित शोध भी नहीं हो पाई है। कतिपय विद्वानों का अभिमत है कि देवद्धिगणि क्षमा श्रमण के स्वर्गारोहण के पश्चात् वीर नि. म. १००० मे १०५५ तक युग प्रधानाचार्य पद पर रहे हरिभद्र सूरि (हारिल मरि) ने दीमकों द्वारा खाई गई खण्डित प्रति म महानिशीथ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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