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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास---भाग ३
के चैत्यवासी परम्परा विषयक उल्लेखों से भी यही प्रमाणित होता है कि चैत्यवासी परम्परा वीर निर्वाण की सातवीं शताब्दी के प्रथम चरण में ही बड़ी लोकप्रिय बहुजन सम्मत और सशक्त परम्परा के रूप में अस्तित्व में आ चुकी थी।
जहां तक अधिकांशतः लुप्तप्रायः मूल महानिशीथ के रचना-काल का सम्बन्ध है, इसकी तीर्थप्रवर्तन काल से ही आगमिक साहित्य में गणना की जाती रही है । नन्दी सूत्र के उल्लेखानुसार वल्लभी-वाचना में इसे भी पुस्तकारूढ़ किया गया था। इसकी प्राचीन प्रतियों में उपलब्ध उल्लेख से ऐसा प्रकट होता है कि महानिशीथ की एक मात्र मूल प्रति हरिभद्र सरि नामक आचार्य को मिली। वह प्रति स्थान-स्थान पर सड़ी-गली, दीमकों द्वारा खाई हुई एवं नितान्त खण्डितविखण्डित रूप में प्राचार्य हरिभद्र को उपलब्ध हुई थी । प्राचार्य हरिभद्र ने उसके स्थान-स्थान पर खण्डित-विखण्डित स्थलों को -अंशों को पढ़ा और उन्हें लगा कि जैन धर्म का वह एक अनमोल ग्रन्थरत्न है। उन्होंने इस अनमोल पागम का उद्धार करने का दृढ़-संकल्प किया। महामेधावी. आगम निष्णात प्राचार्य हरिभद्र ने अथक परिश्रम कर उस जीर्ण-शीर्ण प्रति की प्रतिलिपि करना प्रारम्भ किया। जो भाग पढ़ने में आये उनको यथावत् रूपेण लिख कर और जो भाग दीमकों द्वारा खा लिये गये थे अथवा सड़-गल कर नष्ट हो गये थे, उन स्थलों पर उन्होंने संभवत: अपनी संविग्न-परम्परा की मान्यताओं को दृष्टिगत रखते हुए अपने प्रागम ज्ञान तथा बुद्धि बल से आवश्यकतानुसार उपयुक्त एवं विषय से सुसम्बद्ध वाक्य, वाक्यांश, पृष्ठ अथवा पृष्ठसमूह जोड़कर महानिशीथ का उद्धार किया-अभिनव रूप से पालेखन सम्पन्न किया। इस प्रकार वर्तमान में जो महानिशीथ का स्वरूप है, वह आचार्य हरिभद्र द्वारा संस्कारित स्वरूप है। अतः कोई भी विद्वान यह कहने की स्थिति में नहीं है कि आर्य देवद्धिगणि क्षमाश्रमण के तत्वावधान में महानिशीथ का जो आलेखन किया गया था, उसमें से प्रा. हरिभद्र द्वारा पुनरालिखित, परिवर्तित, परिवद्धित, अधिकांशत: विलुप्त वर्तमान काल में उपलब्ध महानिशीथ में सभी पूर्ववत् अथवा यथावत् है ।
__ इतना सब कुछ होते हुए भी यह तो सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि दीमकों द्वारा खाई गई खण्डित-विखण्डित महानिशीथ की जो प्रति प्राचार्य हरिभद्र सूरि को मिली, उसके आदि एवं अन्त के अंगों के समान मध्य भाग के अंश अपेक्षाकृत कम ही क्षति-ग्रस्त हुए होंगे। इस युक्ति-संगत अनुमान के आधार पर यदि यह कहा जाय तो अतिशयोक्ति नहीं होगी कि महानिशीथ के मध्य भाग में उल्लिखित सावधाचार्य का आख्यान, तीर्थयात्रा विषयक अति पुरातन वज्राचार्य का पाख्यान और द्रव्यार्चना-भावार्चना विषयक ग्राख्यान -ये तीन ग्राख्यान जिस रूप में माथुरी वाचना के आधार पर देवद्धि के तत्वावधान में हुई वल्लभी वाचना (द्वितीय) के समय लिखे गये थे, वे कम क्षतिग्रस्तावस्था में अथवा यथावत् रूप में ही हरिभद्र मूरि को मिले होंगे और महानिशीथ का उद्धार करते समय उन्होंने इन
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