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________________ भट्टारक परम्परा ] [ १२६ आचार्य प्रभाचन्द्र ने वि. सं. १३३४ तदनुसार वीर नि.सं. १८०४ में प्रभावक चरित्र की रचना की। प्राचार्य प्रभाचन्द्र ने इस ग्रन्थ की प्रशस्ति में स्पष्टतः लिखा है कि इन प्रभावक प्राचार्यों में से कतिपय प्राचार्यों का चरित्र प्राचीन ग्रन्थों से और कतिपय का श्रु तघर (वयोवृद्ध-ज्ञानवृद्ध). मुनियों के मुख से सुन-सुन कर उन्होंने संकलित किया है। 'श्री मान देवसूरि चरितम्' में वृद्ध देव सूरि के सम्बन्ध में प्राचार्य प्रभाचन्द्र द्वारा प्रयुक्त-... "श्र यन्तेऽद्यापि वृद्ध भ्यो, वृद्धास्ते देव सूरयः ।" इस पद से स्पष्ट रूपेण प्रकट होता है कि वृद्ध देव सूरि के विषय में उन्होंने जो यह लिखा है---"वे पूर्व में चैत्यवासी परम्परा के उपाध्याय थे, कालान्तर में सर्व देवसूरि से प्रतिबोध पाकर उन्होंने वनवास स्वीकार किया".-- यह सब कुछ विवरण उन्हें कहीं लिखित में नहीं अपितु ज्ञानवृद्ध मुनियों से-जनथ ति-अथवा अनुथ ति के रूप में ही प्राप्त हुआ हो । किसी अन्य ठोस प्रमाण के अभाव में, जहाँ तक इतिहास का प्रश्न है, जनश्रुतियाँ तो पूर्णतः प्रामाणिक नहीं मानी जाती किन्तु मुनि मण्डल में कर्ण-परम्परा से चली आ रही अनुश्र तियों की तो लोक में प्रामाणिक कोटि में ही गणना की जाती रही है। प्राचार्य प्रभाचन्द्र ने वृद्ध देव सूरि के सम्बन्ध में किंवदन्ती अर्थात् जनथ ति के आधार पर नहीं अपितु ज्ञानवृद्ध श्रमणों में कर्ण परम्परागत अनुथ ति के आधार पर लिखा है। इस प्रकार की स्थिति में यह मानना होगा कि वीर निर्वाण की सातवीं शताब्दी के पूर्वाद्ध में ही वीर नि. सं.. ६४०-६५० के आस-पास चैत्यवासी परम्परा का प्रादुर्भाव हो चुका था, तभी इस परम्परा में अनेक वर्षों तक नियत-निवासी रह चुकने के पश्चात् उपाध्याय देवचन्द्र चैत्यवासी परम्परा का परित्याग कर वनवासी परम्परा के श्रमरण बने और वे वीर निर्वाण सं. ६७० के पास पास देवचन्द्र से वृद्ध देव मूरि के नाम से प्रसिद्ध हो प्राचार्य सामन्त भद्र के उत्तराधिकारी १७ वे गरणाचार्य बने । इससे यही निष्कर्ष निकलता है कि वीर नि. म. ६४० मे ६५० की अवधि के बीच किसी समय चैत्यवासी परम्परा के साथ अथवा थोड़े मे अन्तर मे भद्रारक परम्परा भी पृथक इकाई के रूप में संभवत: तीनों मंघों में प्रचलित हो गई थी। श्वेताम्बर परम्परा द्वारा प्राचीन काल में सम्मत ७२ अागमा म मे ३१ वें छद सूत्र महानिशीथ में जो मावद्याचार्य का प्रकरण है, उसमें असंयती पूजा और चैत्यवासियों की प्रागम विरुद्ध मान्यताओं, प्ररूपणाओं और विशुद्ध श्रमरण परम्परा से पूर्णतः विपरीत उनके आचरण पर विशद प्रकाश डाला गया है। महानिशीथ वेताम्बर म्यानकवामी और नेगपंथी परम्परा द्वारा वर्तमान काल में ३० प्रागम ही मान्य है। उनमें महानिशीथ की गगाना तो की गई है किन्तु वर्तमान में उपलब्ध, प्रा. हरिभद्र दाग पुनरुद्धार किया हुग्रा महानिशीथ मान्य नहीं किया गया है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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