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________________ १२८ । [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३ वर्षों पश्चात चैत्यवासी परम्परा के अंकुर प्रकट हो गये। चैत्यवासी परम्परा के उदयकाल में ही अथवा तत्काल पश्चात् ही श्वेताम्बर, दिगम्बर और यापनीय इन तीनों ही संघों के इने-गिने महत्वाकांक्षी अथवा कारण वशात् अपने संघ से असंतुष्ट श्रमणों ने चैत्यवासी श्रमणों के पदचिन्हों का अनुसरण करते हुए इन तीनों ही संघों में भट्टारक परम्परा के बीज का वपन कर दिया। इस सम्बन्ध में निम्नलिखित तथ्य विचारणीय हैं : वीर नि. सं. ६०६ में भगवान महावीर का धर्म संघ श्वेताम्बर दिगम्बर और यापनीय- इन तीन भिन्न-भिन्न विभागों में विभक्त हो गया यह एक विद्वज्जन सम्मत अभिमत है "छिद्रेष्वनाः बहुली भवन्ति"-इस उक्ति के अनुसार उस विभेद के पश्चात् धर्म संघ के विघटन की प्रक्रिया प्रारम्भ हो गई और दो तीन दशकों के अन्दर ही अन्दर एक नई परम्परा-चैत्यवासी परम्परा धर्म संघ में प्रकट हुई। इसका प्रमाण है उपाध्याय देवचन्द्र का जीवन वृत्त । विक्रम की १४वीं शताब्दी के विद्वान आचार्य प्रभाचन्द्र ने ऐतिहासिक महत्व के अपने ग्रन्थ 'प्रभावक चरित्र' (वि.सं.१३३४) के 'सर्व देवसरि चरितम्' में वीर निर्वाण की सातवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में चैत्यवासी परम्परा के अस्तित्व का उल्लेख करते हुए लिखा है.--"वनवासी आचार्य सर्वदेवसूरि वाराणसी से सिद्ध क्षेत्र शत्रं जय की ओर विहार करते हुए सप्तशती प्रदेश (कोरण्टक ७०० राज्य) की राजधानी कोरण्टक नगर में.आये । वहां श्री महावीर चैत्य में नियत निवास करने वाले चैत्यवासी उपाध्याय देव चन्द्र रहते थे। प्राचार्य सर्व देवसूरि ने कतिपय दिनों तक कोरण्टक नगर में रहकर उपाध्याय देवचन्द्र और उसके प्राज्ञानुवर्ती चैत्यवासो श्रमणों को धर्मोपदेश द्वारा समझा बुझा कर बनवासी परम्परा का श्रमण बनाया। चैत्यवासी परम्परा का परित्याग कर वनवास स्वीकार करने के पश्चात् उपाध्याय देव चन्द्र ने कठोर तपश्चरण किया। उपाध्याय देवचन्द्र की तपोनिष्ठा एवं विद्वत्ता की ख्याति दिग्दिगन्त में व्याप्त हो गई। इसके परिणामस्वरूप उपाध्याय देवचन्द्र को, सोलहवें गणाचार्य सामन्तभद्र के स्वर्गस्थ हो जाने पर वीर नि. सं. ६७० के आस पास गणाचार्य पद पर अधिष्ठित किया गया और वे वृद्ध देव सूरि के नाम से एक महान प्रभावक प्राचार्य के रूप में लोक प्रसिद्ध १७वें गणाचार्य हुए।' कांचित्प्रबोध्य तं चैत्यव्यवहारममोचयत् ।।१०।। म पारमार्थिक तीव्र, धत्तं द्वादशधा तपः । उपाध्यायस्ततः सूरि-पदे पूज्यः प्रतिष्ठिनः ।।११।। श्री देवसूरिरित्याख्या, तम्य म्याति ययौ किन्न । श्रू यन्तेऽद्यापि वृद्ध भ्यो, वृद्धाम्ने देवमूग्यः ।। १ ।। - प्रभावक चरित्र, १३ थी मानदेव मूरि चरि ११ - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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