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भट्टारक परम्परा ]
[ १२७ के थोड़े समय पश्चात् ही चैत्यवासी परम्परा के बीज अंकुरित हो गये थे और ऐसा प्रतीत होता है कि चैत्यवासी परम्परा के प्रारम्भिक प्रादुर्भाव काल में ही श्वेताम्बर दिगम्बर एवं यापनीय-इन तीनों सघों के इक्के-दुक्के श्रमणों ने अपनी-अपनी परम्परा के न्यूनाधिक अनुरूप ही श्रमणधर्म का परिपालन करते हुए चैत्यों में निवास करना प्रारम्भ कर दिया था।
भट्टारक परम्परा का प्रथम स्वरूप इस प्रकार की परिपाटी को अपनाने वाले इन तीनों संघों के अत्यल्प संख्यक श्रमणों ने प्रारम्भ में चैत्यों में निवास करना तो प्रारम्भ कर दिया किन्तु उन्होंने चैत्यवासियों के समान नियत-निवास को स्वीकार नहीं किया था। वर्षावासावधि को छोड़ शेष आठ मास के काल में वे एक स्थान से दूसरे स्थान पर विचरण करते रहते थे। इस प्रकार मुक्त अथवा दिवंगत महापुरुषों के पार्थिव शरीर के दाह-स्थलों पर पुरातन काल में बने स्तूपों-चैत्यों में अथवा देवायतनों में निवास करते हुए विचरण करने वाले इन तीनों ही संघों से पृथक हुए श्रमरणों की--इन तीनों सुगठित संघों के अनुशासन में रहने वाले श्रमणों से भिन्न पहिचान के लिये उन्हें समुच्चय रूपेण 'भट्टारक' नाम से अभिहित किया जाने लगा। इनकी संख्या अति स्वल्प होने, इनके संघ के न होने तथा सुगठित संघों के प्रति जनसाधारण की श्रद्धा-भक्ति-निष्ठा होने के कारण प्रारम्भिक काल में उन भट्टारकों को जन-सम्पर्क साधना आवश्यक हो गया। इस प्रकार उनका जनसम्पर्क की ओर झुकाव उत्तरोत्तर बढ़ता ही गया। यह था भट्टारक परम्परा का प्रारम्भिक और पहला स्वरूप ।
अब मुख्य प्रश्न यह उपस्थित होता है कि इस प्रकार की भद्रारक परम्परा प्रारम्भ किस समय हई । भट्टारक परम्परा के प्रादुर्भाव काल के सम्बन्ध में विचार करना परमावश्यक है क्योंकि भट्टारक परम्परा के प्रादुर्भाव का प्रमुख कारण चैत्यवासी परम्परा ही रही है और भट्टारक परम्परा के जन्मदाता उपर्युक्त तीनों संघों के श्रमण प्रारम्भ में चैत्यवासो परम्परा के पदचिह्नों पर ही चले हैं।
'संघपट्टक-सवृत्ति' के उल्लेखानुसार चैत्यवासी परम्परा का प्रादुर्भाव वीर नि. सं. ८५० में हुआ । संघपट्टक की भूमिका में जिनवल्लभ ने चैत्यवासी परम्परा की उत्पत्ति का इतिहास प्रस्तुत करते हुए लिखा है--"वीर नि. ८५० के आस पास कुछ मुनियों ने उग्रविहार छोड़कर चैत्यों में, मन्दिरों में रहना प्रारम्भ कर दिया।"
पट्टावली समुच्चयकार ने-"यशीत्यधिकाष्टशत (८८२) वर्षातिक्रमे चैत्यस्थिति:"--- इस वाक्य के द्वारा चैत्यवास के उत्पन्न होने का समय वीर नि. सं. ८८२ माना है। किन्तु जैन वाङमय में एतद्विषयक इतस्ततः उल्लिखित घटनाक्रम के अध्ययन से ऐसा प्रतीत होता है कि इससे पर्याप्त समय पूर्व और एक सूत्र में प्राबद्ध एवं सुसंगठित जैन संघ में विभेद की उत्पत्ति के साथ ही अथवा कुछ ही
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