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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३ कार्य किये जा सकते हैं.। अन्यत्र नियत निवास करने की अपेक्षा चैत्य बनवा कर उनमें रहना धर्म-साधना के साथ-साथ धर्म के प्रचार-प्रसार की दृष्टि से तथा धर्म की व्यूच्छित्ति को रोकने के दृष्टिकोण से भी सर्वथा उपयुक्त ही होगा.। नित्य नियमित प्रभुपूजा, संकीर्तन, सैद्धान्तिक शिक्षण, उपदेश आदि के कारण वे चैत्य
आगे चल कर धर्म के सुदृढ़-स्थायी गढ़ और शिक्षा के केन्द्र बन जायेंगे। जिनेन्द्र 'प्रभु को प्रातः सायं भोग लगाने के निमित्त जो भोज्य सामग्री तैयार की जायगी उससे चैत्य में नियत निवास करने वाले साधुओं का सुचारु रूपेण भरण-पोषण भी हो जायगा और वे आधाकर्मी पाहार के दोष से भी सदा बचे रहेंगे। इस प्रकार चैत्यों के निर्माण और उनमें भोजन आदि का समुचित प्रबन्ध करने के लिये जो श्रावक एवं श्राविका वर्ग धनराशि का दान करेंगे, वे महान् पुण्य के भागी हो सहज ही स्वर्ग-अपवर्ग के अधिकारी बन सकेंगे।'
लोगों ने पहली बार सुना कि बिना किसी प्रकार की तपश्चर्या, परीषहसहन, व्रत, नियम, प्रत्याख्यान प्रथवा संयम-साधना के, बिना किसी प्रकार के कायक्लेश के, केवल पैसे खर्च करके भी स्वर्ग प्राप्त किया जा सकता है, शनैः शनैः शाश्वत सुखधाम मोक्ष भी प्राप्त किया जा सकता है, तो उनके रोम-रोम में उत्साह की उमंग तरंगित हो उठी।
स्वर्ग का सुख कौन नहीं चाहता, मुक्ति किसे प्रिय नहीं ? उन नवोदित परम्पराओं के धर्मगुरुत्रों के मुख से इस प्रकार का आश्वासन मिलते ही श्रीमन्त भक्तजनों में स्वर्गापवर्ग प्राप्ति की एक प्रकार से होड़ सी लग गई। उन साधुनों के आवास-स्थलों पर चारों ओर से श्रद्धालु श्रावक-श्राविका वर्ग वसुधारा की वृष्टिसी करने लगे।
भट्टारक परम्परा के तीन रूप एवं उनका काल-निर्णय
अपने प्रादुर्भाव काल से लेकर आज तक भट्टारक परम्परा ने समय-समय पर मुख्य रूप से तीन बार अपने रूप बदले हैं। यही कारण है कि इसके उद्भव काल के सम्बन्ध में अाज तक सभी विद्वानों ने यही कहा है कि-भट्टारक परम्परा कब से प्रारम्भ हुई इस सम्बन्ध में ठोस प्रमाण उपलब्ध न होने के कारण कुछ भी नहीं कहा जा सकता।
भगवान महावीर के धर्म संघ में श्वेताम्बर, दिगम्बर और यापनीय संघों के रूप में विभेद उत्पन्न होने से पश्चाद्वर्ती जैन वाङ्मय के अध्ययन से चैत्यवासी परम्परा के जन्मकाल के साथ-साथ भट्टारक परम्परा के उद्भव काल के भी स्पष्ट रूप से संकेत मिलते हैं। वस्तुतः वीर निर्वाण सं. ६०६ के लगभग हुए संघ भेद
१ देखिए ‘संघ पट्टक' मूल और उसकी वृत्ति ।
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