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________________ भट्टारक परम्परा ] [ १२५ ही के किसी समय में चतुर्विध जैन महासंघ दो ही नहीं अपितु श्वेताम्बर, दिगम्बर और यापनीय- इन तीन टुकड़ों में विभक्त होने लगा।' श्रमण-श्रमणी संघ के उपर्युक्त तीन विभागों में विभक्त हो जाने के उपरान्त भी यदि श्रावक-श्राविका संघ तीन विभागों में विभक्त न होकर पहले की ही तरह एकता के सूत्र में सुदृढ़ रूपेण आबद्ध रहता तो अन्ततोगत्वा एक न एक दिन, तीन इकाइयों में विभक्त श्रमरण-श्रमणी संघ को भी सुनिश्चित रूपेण पुनः एकता के सूत्र में आबद्ध होना पड़ता और विभेद के रूप में संघ के विघटन की प्रक्रिया सदासदा के लिए समाप्त हो जाती। वीर निर्वाण की सातवीं शताब्दी के प्रथम चरण में अंकुरित हुए विभेद के परिणामस्वरूप अशक्तता एवं क्षीणता की ओर प्रवृत्त हुए जैन संघ की नवोदित विभिन्न इकाइयों में प्रारम्भ में प्रच्छन्नरूपेण शनैः शनैः स्खलनाओं का सूत्रपात होने लगा । स्खलनामों की ओर प्रवृत्ति के परिणामस्वरूप 'गतानुगतिको लोकः' इस लोकोक्ति के अनुसार साधु-साध्वी वर्ग में शिथिलाचार द्रत गति से व्यापक रूप ग्रहण करने लगा। इस प्रकार विशुद्ध श्रमणाचार से स्खलना की ओर प्रवृत्त हुए श्रमण-श्रमणी वर्गों ने परस्पर गठबन्धन कर अपने-अपने पृथक्-पृथक् संगठन बनाने प्रारम्भ किये। __ श्रावक-श्राविका वर्ग को अधिकाधिक संख्या में अपनी-अपनी ओर आकर्षित कर अपने-अपने पक्ष को प्रबल बनाने के प्रयास होने लगे। अपने-अपने अभिनव रूपेण आविष्कृत आचार-विचार और कार्य-कलापों तथा विधि-विधानों आदि को औचित्य का परिधान पहनाने के लिए कलिकाल के बदले हुए समय का सहारा लिया जाने लगा और लोगों को समझाया जाने लगा :--"अब ऐसा समय नहीं रहा कि प्रतिदिन अप्रतिहतरूपेण आज यहां तो कल वहां -- इस प्रकार विहार किया जाय, नीरस, रूक्ष भिक्षान्न से-धर्माराधन के एकमात्र अनिवार्य साधन शरीर को असमय में ही अशक्त, कृष और जर्जरित कर दिया जाय। इधर-उधर निरन्तर भटकते रहने की अपेक्षा एक स्थान पर नियत निवास कर बड़े-बड़े लोककल्याणकारी १ (क) छव्वाससयाई, तझ्या सिद्धि गयस्स वीरस्स । तो बोडियागा दिट्टी, रहवीरपुरे समुप्पण्णा ।। २५५० ।। विशेषावश्यक भाप्य ।। (ख) छत्तीसे वरिसमए, विक्कमरायस्स मरणपत्तस्स । सोरठे उप्परगो, सेवडो संघो हु वलहीए ।।५२॥ भावसंग्रह ।। (ग) कल्लाणे वर गयरे, दुणिसए पंच उत्तरे जादे ॥ (वि० सं० २०५) जावरिणज्ज संघ भावो सिरि कलसादो हु सेवडदो ||२६।। दर्शनसार ।। दिगम्बर विद्वान् स्व० पं० नाथुरामजी प्रेमी ने दर्शनसार के इस अभिमत को प्रामागिक न मानते हुए इन तीनों संघो की उत्पत्ति साथ-साथ ही मानी है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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