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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - भाग ३
यह था परीषह भीरु श्रमरणों का विशुद्ध श्रमणाचार से स्खलना का प्रारम्भ । जिस भांति उच्चतम ऊंचाई तक पहुंचे हुए पर्वतारोही को उसकी रंचमात्र सी एक कदम की भी स्खलना कुछ ही क्षणों में उसे पर्वतराज के उच्चतम शिखर से नीचे धरातल पर ला देती है, क्षरण भर की अपनी थोड़ी सी असावधानी के कारण जैसे वह कुशल पर्वतारोही अपने प्रति दुष्कर कठोरतम श्रम से शिखर पर पहुंच कर भी धरातल पर आ लुढ़कता है एवं वहां की मिट्टी में मिल जाता है, ठीक उसी प्रकार आध्यात्मिकता के उच्चतम सिंहासन पर प्रारूढ़ होने की उत्कण्ठा लिये साधना के सौपान पर आरोहण करने वाले साधक की किंचित् मात्र स्खलना का भी वस्तुत: यही परिणाम होता है ।
वीर निर्वाण की छटी शताब्दी के अन्त तक श्रमण भगवान् महावीर का श्रमण, श्रमणी श्रावक और श्राविका रूपी चतुविध तीर्थ उन प्रभु द्वारा प्ररूपित प्रागमिक आदर्शो पर पूर्ण निष्ठा के साथ सजग रह कर अपने उच्चतम प्राध्यात्मिक लक्ष्य की ओर अग्रसर होता रहा । भगवान् महावीर द्वारा प्ररूपित श्रमणाचार एवं सैद्धान्तिक मान्यताओं के विपरीत किसी प्रकार की स्खलना के लिये चतुविध संघ ने अपने अन्दर किसी प्रकार की सम्भावना नहीं रखी । यदि कभी farer श्रमण का, श्रमणी का, श्रमरणवर्ग का अथवा किसी श्रमणी वर्ग का प्रभु द्वारा प्ररूपित सिद्धान्तों के प्रति अनास्थामूलक स्खलना का किंचित्मात्र भी कदम उठा तो सदा सजग रहने वाले चतुविध संघ ने प्रथम तो उसे शान्ति और सहृदयता के साथ समझा बुझा कर स्खलना के लिए प्रायश्चित कराने एवं सत्पथ पर लाने का प्रयास किया और यदि समुचित प्रयास के उपरान्त भी अपने हठाग्रह पर ही अड़ा रहा तो सम्पूर्ण चतुविध संघ ने उसकी स्खलना के अपराध के दण्ड-स्वरूप संघ से उसे निकाल बाहर किया । चतुविध संघ द्वारा प्रभु महावीर की विद्यमानता के समय से लेकर वीर निर्वाण की छटी शताब्दी तक स्खलना की ओर प्रवृत्त हुए श्रमण श्रमणियों को समझाये जाने, पुनः सत्पथ पर प्रारूढ़ किये जाने और सब भांति समझाने के उपरान्त भी पुनः सत्पथ पर आरूढ़ न होने वालों को संघ द्वारा संघ से बहिष्कृत घोषित किये जाने के कतिपय उदाहरण उपलब्ध होते हैं । प्रभु के प्रथम निह्नव जमालि से लेकर अन्तिम सातवें निह्नव गोष्ठामाहिल -- इन सात निह्नवों और उनके अनुयायियों को समझाने, सत्पथ पर लाने और समझाने के अनन्तर भी सत्पथ परं न श्राने वालों को अन्ततोगत्वा संघ से बहिष्कृत किये जाने के उल्लेख चतुर्विध संघ की ऐसी सतत् जागरूकता के ज्वलन्त उदाहरण हमें आगमों एवं आगमेतर प्राचीन साहित्य में आज भी उपलब्ध होते हैं ।
जैन धर्म में संघ को सर्वोपरि स्थान दिया जाता रहा है। संघ जब तक सजग, सशक्त एवं ग्रविभक्त रहा, तब तक उसमें किसी प्रकार की स्खलना ग्रथवा शैथिल्य को पनपने देने का किसी भी प्रकार का अवकाश नहीं रहा । किन्तु वीर निर्वाण की सातवीं शताब्दी के प्रथम दशक में और तदनन्तर उसके आस-पास
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