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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - भाग ३
वस्तुतः तो यापनीय परम्परा के ग्रन्थों की संख्या गरणनातीत थी । मूलाराधना, स्त्री मुक्ति, केवलिभुक्ति आदि ग्रन्थ तथा विजयोदया टीका के उद्धरण ग्राज भी जैन वाङ्मय में उपलब्ध होते हैं । ठीक इसी प्रकार भट्टारक परम्परां के विद्वानों ने भी अपनी परम्परा की मान्यताओं के अनुरूप साहित्य का निर्माण करना प्रारम्भ किया ।
१२. ]
भट्टारक परम्परा के तत्वावधान में विशाल पैमाने पर सुव्यवस्थित एवं सुगठित रूप से संचालित शिक्षण संस्थानों में उच्चकोटि का शिक्षण प्राप्त करने वाले स्नातकों में से जो भट्टारक पद पर आसीन हुए उन्होंने और अन्य विद्वानों ने न्याय, व्याकरण दर्शन महाकाव्य आदि सभी विषयों पर उच्चकोटि के ग्रन्थों की रचना की । इन परम्परात्रों के उन दिग्गज विद्वानों द्वारा निर्मित साहित्य का और उनके द्वारा किये गये धर्म प्रचार का जनमानस पर बड़ा व्यापक प्रभाव पड़ा । इसका परिणाम यह हुआ कि श्वेताम्बर तथा दिगम्बर भट्टारक परम्पराएं भी चैत्यवासी परम्परा के समान सुदृढ़, शक्तिशाली और लोक प्रिय बन गईं। देश के विस्तीर्ण भागों में इनका वर्चस्व स्थापित हो गया ।
इस प्रकार चैत्यवासी परम्परा, श्वेताम्बर भट्टारक परम्परा, दिगम्बर भट्टारक परम्परा और यापनीय संघ - इन चारों परम्पराओं के बढ़ते हुए प्रभाव के परिणामस्वरूप जैन धर्म का विशुद्ध मूल प्राध्यात्मिक स्वरूप एवं तद्नुरूप विशुद्ध श्रमणाचार का पालन करने वाली मूल परम्परा का प्रवाह और प्रभाव अनुक्रमश: क्षीण होता गया । देवद्धि क्षमा श्रमण के स्वर्गस्थ होने के कुछ वर्षों पश्चात् तो क्षीणतर होते-होते सुप्त प्रायः गुप्त - प्रायः हो गया ऐसा भी कह दें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी ।
उस घोर संक्रान्ति काल में भी मूल परम्परा पूर्णतः लुप्त नहीं हुई । इस तथ्य की साक्षी देती है - " गड्डरि पवाहो जो ", देवड्ढि खमासमरण जा परं परं...", " सासरणमिरणं सुत्तरहियं च " आदि गाथाएं, जिनका उल्लेख ऊपर यथा स्थान किया जा चुका है ।
लिंग पाहुड़ में सम्भवतः ऊपर चर्चित चारों परम्पराओं के श्रमणों, भट्टारकों एवं आचार्यों आदि के श्रागम विरुद्ध श्रमरणाचार तथा दैनन्दिन कार्यकलापों की समुच्चय रूप से आलोचना करते हुए ही लिखा गया है।
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"जो जोडेज्ज विवाहं, किसिकम्म वाणिज्ज जोवघादं च ।”
अर्थात् - इन साधु नामधारियों (भट्टारकों, चैत्यवासियों यापनीयों आदि ) द्वारा वैवाहिक गठबन्धन, भूमि की जुताई, बुवाई, सिंचाई, गुड़ाई, लुगाई, दांव, खेती के काम की वस्तुओं का क्रय, कृषि उपज का विक्रय, इन कार्यों में पृथ्वी, अप तेजस्, वायु, वनस्पति तथा त्रस - इन षड्जीव निकायों के असंख्य असंख्य अथवा
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