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भट्टारक परम्परा ]
[ ११६ इस प्रकार के शिक्षण संस्थान चैत्यवासी परम्परा, श्वेताम्बर भट्टारक परम्परा, दिगम्बर भट्टारक परम्परा और यापनीय परम्परा के लिए वरदान सिद्ध हुए। इन शिक्षण संस्थानों से न्याय, ब्याकरण, साहित्य, सभी भारतीय दर्शनों, जैन दर्शन, संस्कृत प्राकृत, अपभ्रंश और प्रान्तीय भाषाओं का उच्चकोटि का प्रशिक्षण प्राप्त किये हुए विद्वान् स्नातक देश के कोने-कोने में फैल गये और अपनी अपनी परम्परा का प्रचार करने लगे। यापनीय चैत्यवासी और श्वेताम्बर एवं दिगम्बर परम्पराओं के उन उद्भट विद्वानों ने अपनी अपनी परम्परा के प्रचार के साथ-साथ अपनी-अपनी परम्परा के नव-निर्मित सिद्धान्तों, पूजादि विधानों, अनेक कर्म-काण्डों, अनुष्ठानों, कल्पों, मन्त्र-तन्त्रों आदि के बड़े-बड़े ग्रन्थों का निर्माण भी किया।
___कालान्तर में जिस प्रकार चैत्यवासी परम्परा के विलुप्त होने के साथ ही उस परम्परा के पोषक ग्रन्थ भी विलुप्त हो गये, उसी प्रकार यापनीय परम्परा का अधिकांश साहित्य भी उस परम्परा के लुप्त होने पर विलुप्त हो गया । आज चैत्यवासी परम्परा के सिद्धान्तों पर प्रकाश डालने वाला यद्यपि एक भी ग्रन्थ कहीं उपलब्ध नहीं होता फिर भी चैत्यवासी परम्परा के अस्तित्व के अनेक प्रमाण जैन वाड्मय में उपलब्ध हैं। जैसे कि दुर्लभराज की सभा में अरण्यचारी गच्छ नायक' उद्योतनसूरि के शिष्य श्री वर्द्धमानसूरि एवं उनके शिष्य जिनेश्वरसूरि में और चैत्यवासी परम्परा के मुख्य आचार्य सूराचार्य में हुए शास्त्रार्थ का उल्लेख जिसमें चैत्यवासी परम्परा के इस प्रकार के ग्रन्थों की विद्यमानता का स्पष्ट उल्लेख निम्नलिखित रूप में आज भी विद्यमान है :
_ "ततो मुख्य सूराचार्येणोक्तम् - "ये वसती वसन्ति मुनयस्ते षड्दर्शन बाह्याः प्रायेण । षड्दर्शनानीह क्षपणकजटि प्रभृतीनि इत्यर्थनिर्णयाय नूतनवादस्थलपुस्तिका वाचनार्थं गृहीता करे ।"२
इस उद्धरण भे स्पष्ट ही है कि चैत्यवासी परम्परा के अपनी मान्यताओं के अनेक ग्रन्थ थे । ठीक इसी प्रकार यापनीय परम्परा के भी अपनी मान्यता के अनेक ग्रन्थ थे। (पृष्ठ ११८ का शेष)
at Kalugumalai we find that a number of disciples trained by the priesters of this University went in different directions to preach Jain Dharma.
-The Forgotten History of the Land's End by S. Padmanabhan (b) South Indian Inscriptions Volume V Nos. 321, 324, 326. A. R. No. 32
35 and 37 of 1894. १. खरतरगच्छ वृहद्गुर्वावली, पृष्ठ ८६ २. वही--पृष्ठ ३
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