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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३
किन्तु कालान्तर में पृथक-पृथक पहिचान के लिये श्वेताम्बर परम्परा के भट्टारकों को श्रीपज्य जी, इनके आवासों अर्थात श्रीपूज्य जी के सिंहासन पीठों को आश्रम, मन्दिर जी आदि नामों से और दिगम्बर परम्परा के भट्टारकों के सिंहासन पीठों को मठ, नसियां (निसिहियां-निषिधियां), बस्तियां (वसदियां) आदि नामों से अभिहित किया जाने लगा। यों तो प्रारम्भिक काल में दोनों परम्पराओं के भट्टारकों के सिंहासन पीठ भारत के सभी प्रान्तों के विभिन्न भागों में रहे किन्तु आगे चल कर श्वेताम्बर परम्परा के भट्टारकों का उत्तर-भारत तथा दक्षिण-पश्चिमी भारत में और दिगम्बर परम्परा का मुख्यतः दक्षिण-भारत में वर्चस्व रहा ।
दोनों परम्पराओं के भट्टारकों ने अपने-अपने भक्तों द्वारा निर्मापित मठों, सिंहासन पीठों का स्वामित्व प्राप्त कर उनमें नियत निवास करते हुए शिक्षण संस्थानों में जैन कुलों के बालकों को और विशेषतः अन्य वर्गों के साधारण स्थिति के गृहस्थों के बालकों को शिक्षण देना प्रारम्भ किया। स्वल्प काल में ही चैत्यवासियों, दिगम्बर भट्टारकों और श्वेताम्बर भट्टारकों के ये शिक्षण संस्थान बड़े लोकप्रिय हो गये। इस प्रकार के शिक्षण संस्थानों में उच्चकोटि के शिक्षण हेतु, इन शिक्षण संस्थानों के सम्यक रूपेण संचालन हेतु एवं छात्रों के समुचित शिक्षण भरण-पोषण आदि की समस्या के स्थायी समाधान हेतु श्रेष्ठियों, सामन्तों एवं राजाओं ने उन संस्थानों के संस्थापक भट्टारकों को मठों, मन्दिरों, चैत्यों, सिंहा. सन पीठों आदि के नाम पर बड़ी-बड़ी धन राशियों, आवास भूमियों, कृषि भूमियों, ग्रामों और चौकी-चंगी से होने वाली राजकीय प्राय के निश्चित अंशों के दान प्रारम्भ किये । इसका परिणाम यह हुआ कि इन शिक्षण संस्थानों में से अनेक शिक्षण संस्थान वर्तमान काल के विश्वविद्यालयों के स्तर के जैन संस्कृति के उच्चकोटि के शिक्षा केन्द्र बन गये। इन शिक्षण संस्थानों के सर्वश्रेष्ठ स्नातकों को भट्टारकों के सिंहासन पीठों पर मण्डलाचार्यों, भट्टारकों आदि के सर्वोच्च पद पर आसीन किया जाने लगा और विशिष्ट प्रतिभा सम्पन्न स्नातकों को देश के विभिन्न भागों में जैन धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए प्रचारक बनाकर भेजा जाने लगा। यापनीय परम्परा का विश्वविद्यालय के स्तर का शिक्षण संस्थान वर्तमान, मैसूर नगर के आस-पास था।
१ खरतर गच्छ वृहद्गुर्वावली में श्वेताम्बर भट्टारकों के उल्लेख उपलब्ध होते हैं । २ इसी प्रकरण में प्रागे प्रमागा प्रस्तुत किये गये हैं। 3 (a) There is epigraphic evidence to show that there was a reputed Jain University at Teru Cheharanathumalai. From the inscriptions found
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