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________________ भट्टारक परम्परा भट्टारक परम्परा का प्रादुर्भाव :-प्राचीन जैन साहित्य के अध्ययन एवं मनन से यह तथ्य प्रकाश में आता है कि श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों ही संघों में देवद्धिगरिण क्षमा श्रमण के स्वर्गस्थ होने से पूर्व वीर निर्वाण सम्वत् ८४० के आस-पास ही भट्टारक परम्परा का बीजारोपण तो हो गया था किन्तु वीर निर्वाण की ११वीं शताब्दी के प्रथम चरण तक श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों ही संघों में नवोदित परम्पराए प्रसिद्धि को प्राप्त नहीं कर सकी, गौरण ही बनी रहीं। श्वेताम्बर परम्परा के भट्टारकों ने प्रारम्भ में परम्परा के आगमानुसारी विशुद्ध श्रमणाचार और चैत्यवासी परम्परा के शिथिलाचार के बीच के मध्यम मार्ग को अपनाया। इसी प्रकार दिगम्बर परम्परा के भट्टारकों ने भी गिरि-गुहावास व वनवास का परित्याग कर प्रारम्भ में चैत्यों में और चैत्याभाव में ग्राम-नगर आदि के बहिर्भागस्थ गृहों में निवास करना प्रारम्भ किया। उग्र विहार रूप परम्परागत परिभ्रमणशील श्रमण जीवन का इन दोनों संघों की भट्टारक परम्पराओं के श्रमणों ने त्याग कर समान रूप से सदा एक ही स्थान पर नियत निवास अंगीकार किया। आगमानुसारी श्रमणाचार से नितान्त भिन्न अपने इस आचरण की उपयोगिता, उपादेयता अथवा सार्थकता सिद्ध करने के उद्देश्य से दोनों ही संघों के भट्टारकों ने अपने-अपने मठों-मन्दिरों में "सिद्धान्त शिक्षण शालाएं" खोलकर उनमें बालकों-किशोरों को शनैः शनैः व्यावहारिक, धार्मिक और सैद्धान्तिक शिक्षण देना प्रारम्भ किया। इस प्रकार के निःशुल्क शिक्षण से बच्चों में ज्ञान-वृद्धि और धर्म के प्रति प्रेम देखकर जनमानस बड़ा प्रभावित हुआ। भावी पीढ़ी के लिए इस प्रकार के . प्रशिक्षण को परमोपयोगी समझकर नगरवासियों अथवा ग्रामवासियों ने श्रीमन्तों से धन संग्रह कर मठ, मन्दिर, चैत्यालय, उपाश्रय, निषिधियां और उनके विस्तीर्ण प्रांगणों में छात्रावासों, विद्यालयों और भोजनशालाओं का निर्माण करवाना प्रारम्भ किया। दोनों परम्पराओं के भट्टारक अपने-अपने भक्तों द्वारा मन्दिरों के साथ निर्मापित विशाल प्रावासों को बस्तियों, निषिधियों अथवा मठों का नाम देकर उनमें रहने लगे। प्रारम्भिक अवस्था में श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्परागों के भट्टारकों के इन ग्रावामों को मठों के नाम से ही अभिहित किया जाता रहा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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