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[ जैन धर्म का मोलिक इतिहास-भाग ३
सब यत्किचित फेर-बदल के साथ, चरिणयों आदि को प्रामाणिक मानने वाली परम्पराओं में ज्यों के त्यों मिलते हैं। उन्हें यहां यह विशेषता मिली कि उन सभी मान्यताओं को इन परम्पराओं में चूणियों, भाष्यों आदि के माध्यम से येन केन प्रकारेण शास्त्रीय बाना पहना दिया गया था। चैत्यवासी परम्परा के श्रमणों के लिये-चैत्य में नियत निवास, औद्देशिक भोजन, चैत्यों का स्वामित्व, रुपया, पैसा, परिग्रह रखना आदि के सम्बन्ध में जो दश नियम बनाये थे, उनसे उस श्राद्धवर्ग को कुछ भी लेना-देना नहीं था। उन्हें तो चैत्यवासियों द्वारा अपने श्राद्ध-वर्ग के निमित्त निर्मित विधि-विधानों और मान्यताओं से ही मतलब था, जो उन्हें चूणियों को प्रामाणिक मानने वाली अन्य परम्पराओं में प्रायः उसी रूप में उपलब्ध हो गईं।
श्वेताम्बर परम्परा में मोटे रूप से दो विभाग
इस प्रकार पश्चाद्वर्ती श्रमस परम्पराओं की लोकप्रवाह के अनुरूप चलने की प्रवृत्ति के परिणामस्वरूप उनके उपासकों की संख्या में तो आशातीत वृद्धि हुई पर चैत्यवासी परम्परा के लुप्त हो जाने के अनन्तर भी, उसके द्वारा जो विकृतियां धर्म के शास्त्रीय स्वरूप में उत्पन्न कर दी गई थीं, वे प्रायः उसी रूप में बनी रहीं। चैत्यवासी परम्परा तो समाप्त हो गई पर उसके अवशेष उसकी श्राद्धवर्ग सम्बन्धी मान्यताओं के रूप में बने रहे।
. इस सबका घातक परिणाम यह हुआ कि चैत्यवासी परम्परा के अवसान के अनन्तर भी जैन संघ मोटे तौर पर इन दो विभागों में विभक्त ही रहा :
१. पहला विभाग तो नियुक्तियों, भाष्यों, चूणियों, अवचूरिणयों और टीकाओं को शास्त्रों के समान प्रामाणिक मानने वाला । और
२. दूसरा विभाग नियुक्तियों, चूणियों आदि को (सम्पूर्ण रूप से) प्रामाणिक नहीं मानने वाला।
___ इन दो विभागों में से पहला विभाग चैत्यवासियों के पतनोन्मुख काल में विक्रम की १५वीं शताब्दी तक बहुजनसम्मत और अनुयायियों की संख्या की दृष्टि से सशक्त रहा।
दूसरा विभाग विक्रम की १५वीं शताब्दी के अन्त तक अतिस्वल्प संख्यक अनुयायियों की दृष्टि से नितान्त गौरण और अशक्त रहा। किन्तु विक्रम की १६वीं शताब्दी के प्रारम्भ काल से यह उभरने लगा और उत्तरोत्तर इसका प्रचार-प्रसार बढ़ने लगा।
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