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विकृतियों के विकास की पृष्ठभूमि ]
[ ११५ खरतरगच्छ बृहद् गुर्वावली के उल्लेखानुसार विक्रम सं० १०८४ में अणहिलपट्टण के महाराजा दुर्लभराज की सभा में सूराचार्य आदि चैत्यवासी आचार्यों के साथ हए जिनेश्वरसूरि के शास्त्रार्थ के समय तक वनवासी उद्योतनसूरि के शिष्य वर्द्धमान सूरि की परम्परा के श्रमण केवल गणधरों और चतुर्दश पूर्वधरों द्वारा ग्रथित शास्त्रों को ही प्रामाणिक मानते थे, इनके अतिरिक्त अन्य किसी की रचना को वे प्रामाणिक नहीं मानते थे । परन्तु कालान्तर में श्रमणों में लोकप्रवाह के अनुरूप चलने की प्रवृत्ति बढ़ने लगी और प्रायः सभी श्रमण परम्पराए चूणियों आदि को भी शास्त्रों के समान ही प्रामाणिक मानने लगीं।
दुर्लभराज की सभा में चैत्यवासियों के साथ हुए उस ऐतिहासिक शास्त्रार्थ में जिनेश्वरसूरि ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि वे केवल गणधरों और चतुर्दशपूर्वधरों द्वारा रचित शास्त्रों को ही प्रामाणिक मानते हैं। इनको छोड़ शेष किसी कृति को, किसी ग्रन्थ को वे प्रामाणिक नहीं मानते । केवल एक इसी प्रमुख युक्ति अथवा मुख्य मान्यता के आधार पर जिनेश्वरसूरि ने उस ऐतिहासिक शास्त्रार्थ में विजय प्राप्त की । खरतरगच्छ वृहद् गुर्वावलि के एतद्विषयक उल्लेख को पढ़ने से तो सहज ही यह विदित होता है कि वर्द्धमानसूरि की परम्परा के श्रमण उस समय तक केवल गरगधरों द्वारा ग्रथित और चतुर्दश पूर्वधरों द्वारा निर्यढ़ शास्त्रों को ही प्रामाणिक मानते थे । दश पूर्वधरों द्वारा रचित आगमों को भी वे प्रामाणिक नहीं मानते थे। सम्भवतः श्रमणों में लोकप्रवाह के अनुरूप चलने की प्रवृत्ति के बढ़ने का ही यह परिणाम था कि उन्हीं वर्द्धमानसूरि, जिनेश्वरसूरि की परम्परा के पट्टधर प्राचार्य
और श्रमण कालान्तर में ऐसे प्राचार्यों की रचनाओं को भी शास्त्रों के समान ही प्रामाणिक मानने लगे, जिन्हें एक पूर्व का भी ज्ञान नहीं था।
जिस लोकप्रवाह को मनीषी प्राचार्यों ने भेड़चाल की संज्ञा दी है, उसी लोकप्रवाह के अनुकल, अनुरूप भाष्यों, चूणियों, नियुक्तियों, टीकाओं आदि की रचनाए की गई। उत्तरवर्ती काल के उन आचार्यों ने अपनी इन रचनाओं से वीतरागवाणीशास्त्राज्ञा अथवा शास्त्रीय उल्लेखों की अपेक्षा लोकप्रवाह को अधिक महत्व देते हुए उन मान्यताओं की पुष्टि की, जिनका कि शास्त्रों में या तो स्पष्ट निषेध है अथवा कहीं कोई उल्लेख तक नहीं है पर लोक प्रवाह में प्रचलित हैं।
___इसी कारण वीर निर्वाण की बीसवीं शताब्दी के पूर्वाद्ध में जब चैत्यवासी परम्परा समाप्त हो गई तो उस समय चैत्यवासी परम्परा के जितने भी अनुयायी थे वे बिना किसी हिचक के नियुक्तियों, भाष्यों, चूणियों एवं टीकाओं आदि को शास्त्रों के समान ही प्रामाणिक मानने वाली श्रमण परम्पराओं के अनुयायी बन गये। क्योंकि चैत्यवासियों ने अपने श्राद्धवर्ग अर्थात् श्रावक-श्राविका वर्ग के लिए जो विधि-विधान, अनुष्ठान, धार्मिक कृत्य आदि आदि निर्धारित किये थे वे प्रायः सबके
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