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________________ ११४ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३ . ताओं को उचित सिद्ध करने के लिये अनेक नये ग्रन्थों की रचनाएं की थीं, ठीक उसी प्रकार मूल श्रमण परम्परा और चैत्यवासी परम्परा के बीच के उस श्रमणवर्ग ने अपनी उन मान्यताओं की पुष्टि में, जिनका कि शास्त्रों में उल्लेख तक नहीं है, भाष्यों, निर्य क्तियों, चरिणयों, अवणियों, टीकाओं, जीवन चरित्रों, कथानकों आदि का लेखन प्रारम्भ किया। अपनी इन नवीन कृतियों में अपनी मान्यताओं के अनुरूप उदाहरणों, कथानकों, गद्य-पद्यांशों आदि का समावेश कर अपनी नूतन मान्यताओं को शास्त्रसम्मत सिद्ध करने का उन्होंने पूर्ण प्रयास किया। लोगों को अधिकाधिक संख्या में अपनी ओर आकृष्ट करने के उद्देश्य से सुविहित परम्परा के जिन-जिन श्रमणों ने जितनी अधिक मात्रा में चैत्यवासियों द्वारा प्रचलित की गई मान्यताओं को कुछ हेर-फेर के साथ अपनी मान्यता के रूप में अपनाया था, उन्होंने स्वलिखित उन चणियों, भाष्यों, निर्य क्तियों, टीकाओं आदि को शास्त्रों के समकक्ष स्थान दे उन्हें मान्य किया। इस प्रकार चैत्यवासी परम्परा के प्रभाव का तीसरा दुष्परिणाम यह हुआ कि मल परम्परा में जहां आगमों को ही परम प्रामाणिक माना जाता था, वहां प्रागमों से भिन्न ग्रन्थों को भी आगमों के ही समान प्रामाणिक मानने का प्रचलन प्रारम्भ हना। आगम साहित्य में स्पष्ट उल्लेख है कि गणधरों द्वारा वीतरागवाणी के आधार पर ग्रथित शास्त्रों और चतुर्दशपूर्वधर अथवा दशपूर्वधरों द्वारा द्वादशांगी में से निर्य ढ शास्त्रों को ही परम प्रामाणिक माना जाय । किन्तु चैत्यवासी परम्परा के प्रभाव के कारण उन.प्राचार्यों-द्वारा रचित चरिण, भाष्य, टीका आदि ग्रन्थों को भी शास्त्रों के समान ही मान्य किया गया जिन प्राचार्यों को पूर्वो के ज्ञान की बात तो दूर एकादशांगी के उन भागों अथवा अंशों का भी ज्ञान नहीं था, जो अंश उनके समय से पूर्व ही नष्ट हो चुके थे, इन ग्रन्थोंको आगमों के समकक्ष मानने वालों की संख्या भी उत्तरोत्तर बढ़ती गई। . चौथा दुष्परिणाम लोगों को अधिकाधिक संख्या में अपनी ओर आकृष्ट करने अथवा अपना अनुयायी बनाने के उद्देश्य से सुविहित परम्परा के जिन-जिन श्रमणों ने जितनी अधिक मात्रा में चैत्यवासियों की मान्यताओं को थोड़े बहुत हेर-फेर के साथ अपनी मान्यता के रूप में अपनाया था, वे उन नवनिर्मित भाष्यों, निर्य क्तियों, चूणियों और टीकाओं आदि को लोक-प्रवाह के अनुरूप समझ कर उतने ही अधिक उन चूणियों ग्रादि की ओर आकृष्ट हुए। शनैः शनैः प्रायः सभी गच्छों के श्रमणों में लोक-प्रवाह के अनुरूप चलने की प्रवृत्ति जागृत होने लगी और वे शास्त्रीय उल्लेखों को अधिक महत्व न देकर अपने पक्ष की पुष्टि और अपनी प्रशास्त्रीय मान्यताओं के औचित्य को सिद्ध करने के लिये नियं क्तियों, भाष्यों, चूणिर्यों और टीकाओं के उल्लेखों को हो प्रमारण के रूप में प्रस्तुत करने लगे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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