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विकृतियों के विकास की पृष्ठभूमि ]
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समझने लगे । धर्म का, चैत्यवासियों द्वारा आमूल-चूल परिवर्तित और विकृत स्वरूप ही वास्तविक सच्चे जैन धर्म के रूप में रूढ़ हो गया। चैत्यनिर्माण, मतिप्रतिष्ठा, ध्वजारोपण, देवार्चन,' मूर्ति के समक्ष नृत्य-संगीत, कीर्तन, रथयात्रा, तीर्थयात्रा, प्रभावना, धूप, दीप, नैवेद्य, पुष्प, पुष्पहार, केसर, चन्दन आदि से प्रतिमा का पूजन आदि तक ही जैनधर्म का वास्तविक स्वरूप सीमित माना जाने लगा। कभी अल्प तो कभी अधिक, कुल मिलाकर लगभग एक हजार वर्ष तक यही स्थिति बनी रही। ये ही कृत्य जैनधर्म के मूल धार्मिक कृत्य हैं, इन धार्मिक कृत्यों को नित्य नियमित रूप से करने वाला व्यक्ति कृतकृत्य हो जाता है, मुक्ति शीघ्र ही उसका वरण कर लेती है, इन धार्मिक कृत्यों को कर लेने के पश्चात् कुछ भी करना अवशिष्ट नहीं रह जाता, इस प्रकार की दृढ़ धारणा जन-जन के मन और मस्तिष्क में चैत्यवासियों द्वारा भर दी गई।
वीर निर्वाण की द्वितीय सहस्राब्दि की अन्तिम शताब्दि के पूर्वार्द्ध में चैत्यवासी परम्परा के विलुप्त हो जाने के उपरान्त भी लोगों के मन और मस्तिष्क में यही भावना घर किये रही । चैत्यवासी परम्परा के ह्रास के प्रारम्भ काल से ही . चैत्यवासी परम्परा के उन्मूलन में संलग्न श्रमण परम्पराओं के श्रमरणों ने इस बात का पूरा-पूरा प्रयास किया कि चैत्यवासी परम्परा के सम्पूर्ण संस्कार लोगों के मनमस्तिस्क से निकल जायं, किन्तु एक हजार वर्षों की पीढ़ी-प्रपीढ़ी से उन विधिविधानों का पूर्णत: अभ्यस्त जनमानस चैत्यवासियों द्वारा डाले गये संस्कारों को नहीं छोड़ सका । उन संस्कारों को छुड़ाने का प्रयास करने वाले भी अपने अभियान में असफल रहे । इस प्रकार चैत्यवासी परम्परा के प्रभाव का दूसरा दुष्परिणाम यह हया कि धर्म और श्रमण परम्परा के मूल स्वरूप में अनेक विकृतियां जो उत्पन्न हो गई थीं, वे स्थायी रूप धारण कर गई।
तीसरा दुष्परिणाम
चैत्यवासी परंपरा के उत्कर्ष काल में, देवद्धिगणि क्षमाश्रमण के स्वर्गारोहण के कुछ समय पश्चात् ही जनमानस को चैत्यवासी परंपरा द्वारा प्रचलित किये गये प्राकर्षक विधि-विधानों, बाह्याडम्बरपूर्ण धार्मिक कृत्यों, अनुष्ठानों आदि की ओर उन्मुख हुआ देख कर शिथिलाचार की ओर झुके हुए कतिपय श्रमण समूहों ने जनमानस में अपनी स्थिति बनाये रखने के उद्देश्य से चैत्यों में नियत निवास, प्रौद्देशिक भोजन
आदि कुछ बातों को छोड़कर चैत्यवासियों द्वारा प्रचालित किये गये कतिपय विधिविधानों और आडम्बरपूर्ण धर्मकत्यों को थोड़े परिवर्तन के साथ स्वीकार कर लिया था। लोक में उनकी स्थिति देखकर सुविहित परम्परा के अनेक श्रमणों ने भी उनका अनुसरण किया। इस प्रकार सुविहित परम्परा और चैत्यवासी परम्परा के बीच का एक और श्रमणवर्ग अस्तित्व में आया। जिस प्रकार चैत्यवासियों ने अपनी मान्य
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