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________________ ११२ 1 [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३ विधानों एवं दैनन्दिनी के विवरणों को पढ़ने से ऐसा प्रतीत होता है कि जो सुविहित परम्परा शताब्दियों तक चैत्यवासियों द्वारा प्रचलित की गई शास्त्रविरुद्ध मान्यताओं का विरोध करती रही, प्रबल पौरुष और साहस के साथ शास्त्रीय मान्यताओं, मल श्रमणाचार और धर्म के शास्त्र सम्मत स्वरूप का न केवल परिपालन ही अपितु प्रचार-प्रसार भी करती रही, उसी सुविहित परम्परा के नाम पर पनपी हुई वे परम्पराए भी चैत्यवासियों द्वारा प्रचालित बाह्याडम्बरपूर्ण विधि-विधानों, और आचार-विचार की ओर धीरे धीरे आकृष्ट होने लगीं। इसके पीछे एक बहुत बड़ा कारण रहा, वह था चैत्यवासी परम्परा का सुदीर्घकालीन एकाधिपत्य । दूसरा दुष्परिणाम चैत्यवासी परम्परा के व्यापक प्रभाव का दसरा दूरगामी दुष्परिणाम यह हा कि चैत्यवासियों द्वारा श्रमरणों के लिये अपनी कपोल कल्पनानुसार निर्मित किये गये शास्त्राज्ञा से पूर्णतः प्रतिकूल दश नियमों के प्रचलन के कारण विशुद्ध श्रमणाचार के स्वरूप में भी और भावपूजा के स्थान पर द्रव्यपूजा और बाह्याडम्बरपूर्ण भौतिक विधि-विधानों को प्राधान्यता. देने के कारण प्रभु महावीर द्वारा प्ररूपित धर्म के मूल स्वरूप में भी अनेक प्रकार की विकृतियां उत्पन्न हो गयीं। श्रमण जीवन विपुल वैभवशाली सुसमृद्ध गृहस्थ के जीवन से भी अधिक भोगपूर्ण, ऐश्वर्यशाली, समृद्धि सम्पन्न और सौख्य प्रदायी बन गया । धर्म की प्राणस्वरूपा आध्यात्मिकता को धर्म में से निकाल कर उसके स्थान पर भौतिकता को कूट-कूट कर भर दिया गया । सुख-समृद्धिपूर्ण ऐश्वर्यशाली श्रमणजीवन, का जो स्वरूप चैत्यवासियों ने प्रस्तुत किया, उससे भोगलिप्सु लोग अधिकाधिक संख्या में चैत्यवासी श्रमरणसमुदाय की ओर आकृष्ट हुए और इस प्रकार चैत्यवासियों के श्रमणों की संख्या में स्वल्पकाल में ही आश्चर्यजनक अभि-वृद्धि हो गई। दूसरी ओर चैत्यवासियों द्वारा दिये गये ऐहिक और पारलौकिक प्रलोभनों तथा आडम्बरपूर्ण आकर्षक विधि-विधान, अनुष्ठान के आयोजनों से जन-साधारण सामूहिक रूप से चैत्यवासी परम्परा की ओर प्राकृप्ट हुआ । इस प्रकार थोड़े समय में ही चैत्यवासी परम्परा के उपासकों की संख्या में भी सब ओर से आशातीत अभिवृद्धि हई। अनेक प्रदेशों में तो चैत्यवासी परम्परा का जैनों पर एक छत्र एकाधिपत्य सा हो गया। धर्म का स्वरूप भी आमल-चूल बदल दिया गया। अनेक क्षेत्रों के निवासी तो जैन धर्म के मूल स्वरूप को और मूल श्रमण परम्परा को पूरी तरह भूल ही गये । मूल श्रमण परम्परा, जिसे उस संक्रान्तिकाल में सुविहित परम्परा का नाम दिया गया था, वह अनेक क्षेत्रों में लुप्त और कतिपय क्षेत्रों में लुप्तप्रायः सी हो गई । अधिकांश क्षेत्रों के जैनधर्मावलम्बी और शेष क्षेत्रों का प्रायः पूरा का पूरा जन-साधारण चैत्यवासियों को ही वास्तविक जैन श्रमण और चैत्यवासियों द्वारा विकृत किये गये धर्म के स्वरूप को ही वास्तविक जैन धर्म Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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