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________________ विकृतियों के विकास की पृष्ठभूमि ] । १११ के साथ-साथ चैत्यवासी परम्परा की आंधी से धर्म के मल स्वरूप और मूल श्रमण परम्परा को बचाये रखने का संगठित रूप में पूरा प्रयास किया। उनके इस सुसंगठित प्रयास से मूल श्रमण परम्परा नष्ट होने से बची और चैत्यवासियों के उत्तरोत्तर बढ़ते हुए प्रभाव के परिणामस्वरूप क्रमशः क्षीण और क्षीणत्तर होते हुए भी उस संक्रान्तिकाल में वह जीवित रह सकी। धर्म के मूल स्वरूप और मल श्रमणाचार की रक्षार्थ एक समाचारी के माध्यम से संगठित एवं एकजूट हुए सभी गरणों और गच्छों के उस श्रमण-श्रमणी वर्ग को सुविहित परम्परा की संज्ञा दी गई। चैत्यवासियों की सर्वग्रासी भीषण अांधी से विशुद्ध श्रमणाचार तथा धर्म की रक्षा करने के कारण सुविहित परम्परा की प्रतिष्ठा बढ़ी और चैत्यवासी परम्परा के परमोत्कर्ष काल में भी अवशिष्ट रही अथवा अस्तित्व में आई हई तथा उससे उत्तरवर्ती काल में समय-समय पर प्रकट हुई सभी श्रमण परम्पराओं ने अपना स्रोत सुविहित परम्परा से जोड़ते हुए अपने आपको सुविहित परम्परा का ही अंग होना प्रकट किया। श्रमण परम्परा अथवा श्रमणाचार के लिये आगमों में कहीं भी सुविहित शब्द का प्रयोग नहीं किया गया है। चैत्यवासी परम्परा के प्रादुर्भाव के पश्चात् निर्मित हुए जैन वांग्मय में ही श्रमरणों, आचार्यों एवं श्रमणाचार के लिये सुविहित शब्द का प्रयोग विशेपण के रूप में उपलब्ध होता है। इस प्रकार की परिस्थिति में ऊपरिवणित तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में विचार करने पर यही निष्कर्ष निकलता है कि चैत्यवासी परम्परा के प्रादुर्भाव, प्रचार-प्रसार और परमोत्कर्ष के परिणामस्वरूप ही मूल श्रमण परम्परा को सुविहित परम्परा की संज्ञा दी गई। इस प्रकार चैत्यवासी परम्परा के प्रादुर्भाव, परमोत्कर्ष और प्रभाव का यह सुपरिणाम हुआ कि भिन्न-भिन्न गच्छों अथवा गणों के श्रमण सुविहित परम्परा--प्रर्थात-भली-भांति विधिपूर्वक प्रतिपादित परम्परा के एक सूत्र में आबद्ध हुए । वस्तुतः मुविहित परम्परा के नाम पर किसी नवीन परम्परा को जन्म नहीं दिया गया था । अपितु भिन्न-भिन्न गणों अथवा गच्छों में विभक्त मूल परम्परा के श्रमणों को एकता के सूत्र में आबद्ध करने के लिये मूल श्रमण परम्परा को ही यह एक तासूचक दूसरा नाम दिया गया) प्रथम दुष्परिणाम __ चैत्यवासी परम्परा की बाद में धर्म और श्रमण परम्परा के मूल स्वरूप को पर्याप्त अंशों में सुरक्षित रख कर कालान्तर में मुविहित परम्परा भी संभवतः शनैः शनैः अणक्त और क्षीण होते-होते चैत्यवासी परम्परा के उत्तरोत्तर बढ़ते हुए प्रभाव की तुलना में नगण्य मी ही रह गई । कालचक्र का प्रभाव बड़ा हो विचित्र है । अपने आपका मुविहित परम्परा के नाम से परिचय देने वाली, चैत्यवासी परम्परा के उत्कर्ष काल में उभरी हुई, कतिपय परम्पगों के कार्यकलापों, मान्यताओं, विधि For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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