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________________ ११० 1 [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - भाग ३ नारण विराय पहाणेहि, पंचहि सएहिं जो सुविहियारणं । पाश्रोवगश्रो महप्पा, तमज्ज वइरं नम॑सामि ||२०८ || इसी प्रकार राजगच्छ के प्राचार्य चन्द्रप्रभसूरि के शिष्य श्री प्रभाचन्द्रसूरि ने अपनी वि० सं० १३३४ की रचना 'प्रभावक चरित्र' में भी सुविहित श्रमरणों का उल्लेख किया है, जो इस प्रकार है : -- ददे शिक्षेति तैः श्रीमत्पत्तने चैत्यसूरिभिः । विघ्नं सुविहितानां स्यात्, तत्रावस्थानवारणात् ।।४४।। इससे उत्तरवर्ती काल के जैन साहित्य में स्थान-स्थान पर " सुविहित प्राचार", " सुविहित श्रमरण", "सुविहित साधुवर्ग" आदि शब्दों का प्रयोग उपलब्ध होता है । विक्रम सं० १६१७ कार्तिक सुदि ७ शुक्रवार के दिन पाटण नगर में खरतरगच्छीय आचार्य जिनचन्द्रसूरि ने सभी गच्छों के गीतार्थ प्राचार्यों एवं मुनियों को एकत्रित कर तपागच्छीय श्री विजयदानसूरि के शिष्य उपाध्याय धर्मसागर द्वारा रचित 'तत्वतरंगिणी वृत्ति' में उल्लिखित अनेक ग्रंशों को उत्सूत्र घोषित किया । वहां एकत्रित बारह प्राचार्यों और प्रायः सभी गच्छों के गीतार्थ श्रमरणों ने धर्मसागर को बुलाया, समझाया पर वह अपनी मान्यता पर अड़ा रहा । परिणामतः वहां एकत्रित श्राचार्यों एवं श्रमरणों ने उपाध्याय धर्मसागर को निन्हव घोषित कर संघ से बहिष्कृत कर दिया । उस घोषणापत्र में भी खरतरगच्छीय साधुनों के लिये "सुविहित साधुवर्ग" का प्रयोग किया गया है ।" 1 (चैत्यवासी परम्परा के जन्म के पश्चात्कालीन इन उल्लेखों से यह प्रमाणित होता है कि मूल श्रमणाचारी आचार्यों ने शिथिलाचार में लिप्त हुई चैत्यवासी परम्परा के प्रचार-प्रसार के कारण श्रमरण-श्रमरणी वर्ग में बढ़ते हुए शिथिलाचार को रोकने एवं मूल श्रमरणपरम्परा तथा जैन धर्म के अध्यात्मपरक मूल स्वरूप की सुरक्षा के उद्देश्य से विशुद्ध श्रमणाचार का पालन करने वाले सभी श्रमणों के लिये एक समाचारी का निर्धारण किया । प्रभेद एवं मतैक्य प्रकट करने की दृष्टि से उस नवनिर्धारित समाचारी को पालने एवं मानने वाले सभी श्रमरणश्रमणियों को बिना किसी गरण अथवा गच्छ के भेदभाव के "सुविहित" नाम से सम्बोधित करना प्रारम्भ किया। इस प्रकार एक समाचारी का पालन करने वाले श्रमण-श्रमणी वर्ग ने मूल श्रमण परम्परा में शिथिलाचार के प्रवेश को रोकने 1. प्राचार्य श्री विनयचन्द ज्ञानभण्डार, जयपुर का रजिस्टर सं. १, जिसमें अनेक ज्ञानभण्डारों एवं स्थानों से श्री गजसिंह राठौड़ द्वारा विपुल ऐतिहासिक सामग्री संकलित की गई है । पृ० १५० एवम् १८३ | ( प्रकाशित ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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