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________________ विकृतियों के विकास की पृष्ठभूमि ] [ १०६ के स्वर्गारोहण काल आदि अनेक ऐतिहासिक तथ्यों का विवरण दिया गया है, वहां दूसरी ओर तीर्थप्रवाह से सम्बन्धित चैत्यवासी परम्परा के उद्गम, उत्कर्ष और ह्रास के सम्बन्ध में एक भी शब्द नहीं लिखा गया है, इसका क्या कारण है ? इन सब तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में विचार करने पर तित्थोगाली पइण्णय के रचनाकाल के सम्बन्ध में निश्चित रूप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता । केवल यही अनुमान लगाया जा सकता है कि चैत्यवासी परम्परा के प्रसार के पश्चात् ही किसी समय में इस ग्रन्थ की रचना की गई होगी। इस अनुमान की पुष्टि केवल इसी एक प्रमाण से होती है कि सुविहित श्रमणों का उल्लेख चैत्यवासी परम्परा के उद्भव के पूर्व के किसी ग्रन्थ में दृष्टिगोचर नहीं होता और तित्थोगाली पइण्णय में सुविहित श्रमणों और सुविहित गणि-दोनों ही शब्दों का प्रयोग किया गया है। ऐसी स्थिति में अनुमान किया जाता है कि यह ग्रन्थ चैत्यवासी परम्परा के प्रसार के समय में ही हब्ध किया गया। - इन तीन प्राचीन उल्लेखों के पश्चाद्वर्ती काल का एतद्विषयक उल्लेख, सातवें अङ्गशास्त्र "उवासगदसानो" की टीका में उपलब्ध होता है, जो इस प्रकार है : पढम जईण दाऊरण, अप्पणा पणमिऊरण पारे । असई य सुविहियारणं, भुजेइ य कय दिसालोप्रो ।। यह उल्लेख विक्रम की बारहवीं शताब्दी का है। नवांगी टीकाकार श्री अभयदेवसूरि ने वि०सं० ११२० में ज्ञाताधर्मकथा, स्थानांगसूत्र, समवायांग सूत्र और वि. सं. ११२८ में व्याख्या प्रज्ञप्ति (भगवती) सूत्र-इन चार अङ्गशास्त्रों की टीकाओं की रचना की। इनसे पूर्व अथवा पश्चात् किसी समय में, उन्होंने उपासकदशा, अनुत्तरोपपातिक, प्रश्नव्याकरण, विपाक, औपपातिक और प्रज्ञापना-इन प्रागमों की टीकाओं की रचनाए भी की । अभयदेव सूरि वि० सं० ११३५ (दूसरी मान्यता के अनुसार ११३६) में कपड़गंज में स्वर्गस्थ हुए। उपासकदशांग की टीका उन्होंने वि० सं० ११२१ से ११३४ के बीच की अवधि में किसी समय की होगी। अभयदेवसूरि के समय में चैत्यवासी परम्परा अपने चरमोत्कर्ष के पश्चात् शनैः शनैः ह्रास की ओर उन्मुख हो चुकी थी । इस प्रकार उपासकदशांग की टीका का यह उल्लेख भी चैत्यवासी परम्परा के परमोत्कर्ष काल के पश्चात् का ही है। इसी प्रकार पौर्णमासिक गच्छ के प्रवर्तक श्री चन्द्रप्रभसूरि के शिष्य श्री धर्म घोष मुनि ने वि० सं० ११६२, तद्नुसार वीर नि० सं० १६३२ के प्रासपास की अपनी रचना "ऋषिमण्डल स्तोत्र" में मूल श्रमण परम्परा के आर्य वज्र और उनके ५०० शिष्यों को "सुविहित" विशेषण के साथ स्मरण करते हुए उन्हें वन्दन नमन किया है । यथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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