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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३ हरिभद्रसूरि ने, जिनका कि सत्ताकाल वि० सं० ७५७ से ८२७ तक रहा, महानिशीथ सूत्र का अपनी मति अनुसार शोधन-परिवर्द्धन कर पुनरुद्धार किया ।' महानिशीथ में चैत्यवासी परम्परा के उद्भव और उसकी मान्यताओं के सम्बन्ध में अन्यत्र अनुपलब्ध अनेक विस्तृत उल्लेखों की विद्यमानता के कारण यह अनुमान किया जाता है कि महानिशीथ की रचना चैत्यवासी परम्परा के जन्म और प्रचार-प्रसार हो चुकने के पश्चात् किसी समय में की गई।
गच्छाचार पइण्णय के रचनाकाल के सम्बन्ध में विचार करने पर यह रचना महानिशीथ से उत्तरवर्ती काल की प्रतीत होती है, क्योंकि गच्छाचार पइण्णय में महानिशीथ सूत्र की कतिपय गाथाए यथावत् विद्यमान हैं ।
___इसी प्रकार "तित्थोगाली पइन्नय' के रचनाकार अथवा रचनाकाल के सम्बन्ध में प्रमाणाभाव के कारण निश्चित रूप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता। तीर्थंकरों द्वारा स्थापित चतुर्विध संघ के प्रवाह और ह्रास पर प्रकाश डालने वाला यह एक प्राचीन ग्रन्थ है । इसमें अनेक ऐतिहासिक तथ्यों का उल्लेख है । आर्य स्थूलिभद्र के प्राचार्यकाल तक की घटनाओं का इसमें भूतकाल की घटनाओं के रूप में और उनके प्राचार्यकाल से उत्तरवर्ती काल की घटनाओं का भविष्य काल की घटनाओं के रूप में उल्लेख है। इससे यह अनुमान, करने को अवकाश मिलता है कि कहीं इस "तित्थोगाली पइण्णय" ग्रन्थ की रचना आर्य महागिरी के समय में तो नहीं की गई है। पर जहां इस ग्रन्थ को निम्नलिखित गाथा पर दृष्टि पड़ती है
............., नंद वंसो मुरिय वसो य ।
सवराहेण परगट्ठा, जारिण चत्तारि पुव्वाई।
तो इसमें मौर्य वंश के समाप्त होने के उल्लेख को देख कर वह अनुमान निरी कल्पना मात्र ही सिद्ध होता है। इसके साथ ही इस ग्रन्थ में अनेक प्रक्षिप्त गाथाओं की विद्यमानता के कारण निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि कौनसी गाथा प्रक्षिप्त है और कौनसी मूल । जिस गाथा के आधार पर काल के सम्बन्ध में निर्णय करने का प्रयास किया जाता है, कहीं वह गाथा प्रक्षिप्त गाथा तो नहीं है, इस आशंका से भी किसी निर्णायक स्थिति पर पहुँचने में कठिनाई उपस्थित होती है। इसके साथ ही यह भी विचार आता है कि इस ग्रन्थ में जहां एक ओर तीर्थ-प्रवाह से सम्बन्धित द्वादशांगी के ह्रास, विच्छेद और कतिपय प्राचार्यों
' (क) विस्तार के लिये देखिये प्रस्तुत ग्रन्थ का ही "हारिलसूरि का प्रकरण । (ख) कुशलमतिरिहोद्दधार जनोपनिषदिकं स महानिशीथशास्त्रम् ॥२१६।।
प्रभावकचरित्र, हरिभद्रसूरिचरितम्, पृ० ७५
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