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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - भाग ३
शिथिलाचार की ओर उन्मुख हुए इस प्रकार के युग में शिथिलाचार की ओर प्रवृत्त हुए श्रमरण-श्रमणी वर्ग को और मुख्यतः विशुद्ध श्रमणाचार के पक्षपाती परीषहभीरु श्रमरणवर्ग को विशुद्ध श्रमरणाचार में सुस्थिर करने के उद्देश्य से भवभीरु सच्चे श्रमणों ने परस्पर विचार-विमर्श कर शास्त्रों और महानिशीथ ग्रादि छेद सूत्रों से निर्यूड गच्छाचार पइण्णय जैसे प्रागमिक ग्रन्थों को प्रदर्श मान कर विशुद्ध श्रमणाचार का पालन करने वाले श्रमरण - श्रमणी वर्ग के लिये एक सर्वसम्मत समाचारी का निर्माण किया। सभी श्रमरणों के लिये समान आचार का निर्धारण करने वाली उस समाचारी को सुविहित प्राचार की संज्ञा दी गई। उस "सुविहित ग्राचार" समाचारी का पालन करने वाले श्रमण श्रमणी वर्ग को सुविहित के नाम से सम्बोधित किया जाने लगा । इस प्रकार मूल परम्परा के विभिन्न गणों और गच्छों के श्रमरण-श्रमणियों का, उस समय शिथिलाचार की प्रोर सामूहिक रूप से उन्मुख हुए श्रमण-श्रमणी वर्ग से एक भिन्न वर्ग बन गया । कालान्तर में उस सुविहित समाचारी का पालन करने वाले उस वर्ग ने एक परम्परा का रूप धारण कर लिया और लोक में उस परम्परा को "सुविहित परम्परा" के नाम से पहचाना जाने लगा ।
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सुवि
सुविहित परम्परा
विशुद्ध श्रमणाचार को "सुविहित प्राचार" और विशुद्ध श्रमरणाचार का पालन करने वाले श्रमण श्रमणियों के लिये "सुविहियारणम्" शब्द का प्रयोग कित समय से किया जाने लगा, इस प्रश्न का उत्तर खोजने के लिये हमें सम्पूर्ण जैन वांग्मय का विहङ्गम दृष्टि से अवलोकन करना होगा । इस दृष्टि से मूल आगमों का आलोडन करने पर विदित होगा कि मूल आगमों में न तो श्रमरणों के लिये कहीं सुविहित शब्द का प्रयोग दृष्टिगोचर होता है और न श्रमरणाचार केलिये ही । प्राचीन श्रागमिक साहित्य में से महानिशीथ, गच्छाचार पइण्णय और तित्थोगाली पडण्य में विशुद्ध प्रचार सम्पन्न श्रमण श्रमणियों के लिये "मुविहियारगम्" शब्द का प्रयोग उपलब्ध होता है । "महानिशीथ सूत्र" के पांचवें अध्ययन में मुविहित माधुयों के सम्बन्ध में इस प्रकार का उल्लेख विद्यमान है
"जहा -- इच्छायारेणं न कप्पई तित्थयत्तं गंतु सुविहियाणं । "
अर्थात् मुविहित परम्परा के श्रमणों को ( अपनी इच्छानुसार ) तीर्थयात्रा के लिये जाना कम्पनीय नहीं है ।
"गच्छाचार पइण्ाय" में सुविहित साधुस्रों का जो उल्लेख किया गया है, वह इस प्रकार है :
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