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________________ विकृतियों के विकास की पृष्ठभूमि ] [ १०५ चैत्यवासी परम्परा के प्रभाव के परिणाम यह तो प्रमाणपुरस्सर विस्तारपूर्वक बताया जा चुका है कि देवद्धिगणि क्षमाश्रमण के आचार्यकाल तक प्रभु महावीर द्वारा प्ररूपित धर्म की मूल परम्परा भावपरम्परा के रूप में अक्षुण्ण एवं अनवरत गति से चलती रही। देवद्धि के स्वर्गारोहण के पश्चात् साधु प्रायः शिथिलाचारी बन गये और उन्होंने अनेक प्रकार की द्रव्य परम्पराए स्थापित कर दी। इस विषय में नवांगी वृत्तिकार प्राचार्य अभयदेवसूरि द्वारा, अपनी कृति "पागम अट्ठोत्तरी" की निम्न गाथा में अपने उद्गार प्रकट किये गये हैं: देवड्ढि खमासमण जा, परंपरं भावप्रो वियारणमि । सिढिलायारे ठविया, दम्वेण परंपरा बहुहा ॥ उनके इन तथ्यपूर्ण आन्तरिक उद्गारों पर चिन्तन-मनन करने के पश्चात् निष्पक्ष विचारक की इससे भिन्न राय नहीं हो सकती। विपुल विनाश के उपरान्त भी अवशिष्ट रहे विशाल जैन वांग्मय में निहित तथ्यों के तुलनात्मक अनुशीलन से यह स्पष्टतः आभास होता है कि देवद्धिगरिण क्षमाश्रमण के स्वर्गारोहण के अनन्तर चैत्यवासी परम्परा एक प्रचंड आंधी के वेग के समान उठी और शीघ्र ही भारत के बहुत बड़े भाग पर बड़ी तेजी से छा गई । शिथिलाचार के पंक से अंकुरित हुई चैत्यवासी परम्परा द्वारा प्रसिधारा-गमन तुल्य अति कठोर श्रमणाचार में कतिपय नवनिर्मित नियमों के माध्यम से दी गई खुली छूट के कारण श्रमणवर्ग और जैन धर्म की अध्यात्ममूलक उपासना के स्थान पर अपनी कपोलकल्पना से प्रेरित परमाकर्षक बाह्याडम्बरपूर्ण द्रव्यपूजामयी उपासना विधि से गहस्थवर्ग चैत्यवासी परम्परा की ओर इस प्रकार आकृष्ट हया, जिस प्रकार कि दीपक की लौ की ओर पतंगों का समूह आकर्षित होता है। एक सहस्राब्दि से भी अधिक समय से, श्रमण भगवान् महावीर द्वारा निर्दिष्ट श्रमरणचर्या के कठोर नियमों का कड़ाई के साथ पालन करती चली आ रही श्रमण परम्परा के नियमों में चैत्यवासी परम्परा द्वारा आविष्कृत खुली छूट को देख कर अनेक परीषहभीरु श्रमण-श्रमणियों के मन दोलायमान हुए। एक-एक कर बहुत से श्रमणों और श्रमणियों ने शिथिलाचार को अपनाया और इस प्रकार श्रमणश्रमणियों का बहुत बड़ा वर्ग शिथिलाचारी बन गया। कौन सा भवभीरु सच्चा श्रमण है और कौन सा परीषहभीरु शिथिलाचारी श्रमण, इसकी कोई पहचान नहीं रही। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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