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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३
चला गया। तदनन्तर गुजरात में मुनिचन्द्रसूरि के प्रयासों से चैत्यवासी परम्परा का पराभव हुआ और पूनमियां गच्छ के प्राचार्यों, प्रांचलिक गच्छ के प्राचार्यों, आगमिक गच्छ के आचार्यों तथा सोमसुन्दर सूरि के शिष्य मुनिसुन्दरसूरि के सम्मिलित प्रयासों से वि० सं० १४६६ के आसपास चैत्यवासी परम्परा का ह्रास होतेहोते उसका अस्तित्व ही समाप्त हो गया। चैत्यवासी परम्परा के समाप्त होने के साथ ही साथ उस परम्परा के प्राचार्यों द्वारा अपने उत्कर्षकाल में बनाये गये नये-नये नियमों, नूतन मान्यताओं, स्वकल्पित विधि-विधानों आदि के सभी ग्रन्थ भी विस्मृति के गहन गर्त में विलुप्त हो गये । आज चैत्यवासी परम्परा का एक भी ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है । इस प्रकार जो चैत्यवासी परम्परा वीर निर्वाण की ग्यारहवीं शताब्दी से बीसवीं शताब्दी के प्रथम चरण तक भारतवर्ष के अधिकांश भागों पर अपना एकाधिपत्य और पूर्ण वर्चस्व बनाये रही वह अपने लगभग १००० वर्ष के अस्तित्व काल के पश्चात् पूर्णतः लुप्त हो गई।
वीर नि० सं० २००० के प्रथम चरण में चैत्यवासी परम्परा तो समाप्त हो गई किन्तु वह अपने पीछे अपने पदचिन्ह अवश्य छोड़ गई। चैत्यवासी परम्परा द्वारा जो शास्त्रों से विपरीत मान्यताएं प्रचलित की गई उन मान्यताओं का प्रचलन बहुसंख्यक जैनों में लगभग एक हजार वर्ष तक रहा। चैत्यवासी परम्परा द्वारा प्रचलित किये गये नये-नये आकर्षक विधि-विधान निरन्तर एक हजार वर्ष के प्रतिदिन के अभ्यास के कारण जनमानस में धर्मकृत्यों के रूप में रूढ़ हो गये, लोगों के हृदय में गहरा घर कर गये। उन्हें छुड़वाने के निरन्तर अनेक प्रयास किये गये परन्तु एक हजार वर्ष से अभ्यस्त जनसाधारण उनमें से पूर्णतः रूढ़ कतिपय लोकप्रिय से हो गये, विधि-विधानों को छोड़ने के लिये किसी भी दशा में सहमत नहीं हुआ । परिणामतः चैत्यवास के ह्रासोन्मुख काल में पनपी हुई अधिकांश ही नहीं अपितु प्रायः सभी परम्पराओं ने चैत्यवासियों द्वारा अपनी कल्पनानुसार प्रचलित को गई मान्यताओं को विधि-विधानों को किसी न किसी नये परिवेश के रूप में अपना लिया। यही कारण है कि शास्त्रों में जिन विधि-विधानों का, जिन मान्यताओं का कहीं कोई उल्लेख नहीं वे वर्तमान काल की अनेक परम्पराओं में प्रचलित हैं । उन कतिपय अशास्त्रीय विधि-विधानों एवं मान्यताओं को देखने से प्रत्येक निष्पक्ष एवं सत्य के उपासक विचारक को यही प्रतीत होता है कि चैत्यवासी परम्परा तो समाप्त हो गई पर उसकी छाप, उसके पदचिह्न व उसके अवशेष आज भी विद्यमान हैं।
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